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पं० सत्यनारायण कविरत्न नही जानता था कि वे सत्यनारायणजी से परिचित है। इसलिये मैने मि० डाब्सन से कहा--"सत्यनारायणजी तो अग्रेजी खूब पढ़े हुए है-आप उनसे अग्रेजी मे क्यो नही बोलते ?" मिस्टर डाब्सन बोले-'सत्यनारायण को मै खूब जानता हूँ । आगरे से चलते वक्त इन्होने मुझसे कहा था कि “हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान" को मत भूल जाना । इसलिये मैं इनसे हिन्दी मे बोलता हूँ !" यह सुनकर मुझे लज्जित होना पड़ा । डाब्सन साहब को जो 'अभिनन्दन-पत्र' दिया गया था उसमे सत्यनारायणजी ने ये शब्द लिखे थे--
"नित ध्यान रहै तव हृदय मे ईश-चरण अरविन्द को, प्रिय सजन, मित्र, निज छात्रजन, हिन्दी-हिन्दू हिन्द को"। जब सत्यनारायणजी हमारी प्रदर्शिनी देखने आये तो मैने उनसे कहाआप अपनी कोई कविता सुनाइये । उस समय उन्होने बड़े मधुर स्वर से यह पद सुनाया था --
सुधि रहि-रहि आवत तव सँग की रंगरलियाँ, नय नयनाभिराम श्यामल वपु-शैल गग-तट गलियों ! रस-बतरानि बिचारत बिकसत रोम-रोम की कलियाँ, सत गरीब को फेरि देउ मन भली न ये छलबलियाँ ।
. ओङ्कारेश्वर-यात्रा साहित्य-सम्मेलन सम्पन्न होने पर सत्यनारायणजी ओङ्कारेश्वर के दर्शन के लिये गये थे। साथ मे पं० तोतारामजी, अध्यापक रामरत्नजी, प० भगीरथप्रसाद दीक्षित, श्री रामप्रसादजी आदि थे। इस यात्रा का विवरण श्री तोतारामजी की जबानी सुन लीजिये।
. "गोल टोपी लगाये' बृन्दावना मिर्जई पहने, गले में अगौछा डाले और बगल मे गजी की चादर और लोटा दबाये सत्यनारायणजी हमलोगो के साथ स्टेशन पर पहुँचे । टिकट लाने का काम पंडितजी को सौपा गया। भीड़ बहुत थी। पंडितजी ने बहुत कोशिश की, लेकिन टिकट नहीं मिल