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________________ दो फूल प्रिय पं० बनारसीदासजी चतुर्वेदी के रचे हुए अपने मित्र के इस साहित्यिक श्राद्ध के अवसर पर उनकी स्वर्गीय आत्मा के प्रति श्रद्धा के दो फूल मै भी अर्पित करना चाहता हूँ । कविरत्न प० सत्यनारायणजी का जीवन आदि से अन्त तक, सवाह्याभ्यन्तर, अत्यन्त मधुर था । मधुरता ही उनके जीवन का रहस्य है । आगरे मे मेरा उनका तीन वर्ष तक घनिष्ठ सत्सग रहा । ऐसा एक दिन भी नही बीतता था कि, जब वह शहर में आवें, और मेरे द्वार पर आकर मधुरता की आवाज न लगावे । चाहे जितनी जल्दी मे हो, दो मिनट अपने सम्भावण का सुख मुझे अवश्य दे जाते थे । उनका हृदय जितना कोमल था, उनके वचन और उनके कार्य भी उतने ही कोमल थे । तीन वर्ष के अन्दर मैने उनको कभी क्रोधित होते हुए नही देखा । मेरा उनका मतभेद भी जब कभी उपस्थित होता, इतनी कोमलता से अपना रोप प्रकट करते कि उनके उस रोष में भी मैं रमणीयता का अनुभव करता था -- उनके उस रूठने में मुझे एक प्रकार का आनन्द आजाता था । उन्होने अपने इस छोटे जीवन मे आनन्द, मधुरता और कोमलता क्षण भर के लिए भी नही छोड़ी । उनकी याद आते ही मुझे वेद का यह बचन याद आ जाता है: मधुमन्मे निक्रमणं मधुमन्मे परायणम् । वाचा वदामि मधुमद् भूमासौ मधुसदृशः || इस बचन को भगवान ने उनके जीवन में स्वाभाविक ही चरितार्थं कर रक्खा था । उनकी मधुर मिलन की मूर्ति मित्रो की स्मृति से कभी न जायगी ।
SR No.010584
Book TitleKaviratna Satyanarayanji ki Jivni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Chaturvedi
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year1883
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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