SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गृह-जीवन १२७ ( पत्र भेजने का ? ) नहीं है । तुम भेजो या मत भेजो। मै तो छुटकारा पाचुकी । हस्ताक्षर सावित्री यह बात ध्यान देने योग्य है कि पंडितजो ने अपने प न लिखा था: - " इस समय मेरा शरीर अच्छा नही है । चौदह या पन्द्रह दिन से आम खून के दस्त हुए ही चले जाते है और ३ दिन से दूसरी आँख भो दुखने आई है | दर्द के मारे बेचैन हूँ। और पत्र के अन्त मे प्रार्थना भी की थी कि "हाथ गहे की लाज से अथवा दुनिया के लिहाज से क्या आपसे आशा करूँ कि आप मेरी इस व्यथित एवं विपन्नावस्था मे कटु तथा तीब्र पत्र लिखने की कृपा न करेगी ?" श्रीमतीजी ने उनकी प्रार्थना कहाँ तक स्वीकृत की, यह बतलाने की आवश्यकता नही । उन्ही दिनो सत्यनारायण जी ने निम्नलिखित पद्य रचा था । परेखौ परेखी प्रेम किये को आये । कहा कहे मन मूढ asो यह जो तुम्हरे ढिग जावै ॥ होती बात हमारे बस की कबहुँ न लेते नाम | पानी पी पी सदा कोसते तुमको हे घनश्याम ॥ * जो चाहत तुमको निसिबासर प्रेम प्रमत्त अपार ॥ ताके सग अनोखो ऐसो करत आप व्योहार ॥ सुनत रहे जो मुख अनेक सों अनुभव मे अब आई । ऊँची बड़ी दुकान तिहारी फोको बने मिठाई ॥ तन मन धन सर्वस्व निछावर करे जो ताके बँट निर्दयता ऐसी । कैसे तुम्हरे हेत । दयानिकेत ? *यह पंक्ति 'हृदय-तरंग' में इस प्रकार लिखी है करतो चाहे जगत. भले ही कितनी हू बदनाम ॥
SR No.010584
Book TitleKaviratna Satyanarayanji ki Jivni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Chaturvedi
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year1883
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy