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________________ ११४ पं० सत्यनारायण कविरत्न इस पत्र का उत्तर २६।१२।१५ को सत्यनारायणजी ने निम्नलिखित पद्य में दिया था । " आई तव पाती । नहि बिसरायो अजहुँ मोहि यह जानि सिरानी छाती ॥ बड़े भाग जो इतने दिन मे सोचि कछू सुधि लीनी । दरस - पिपासाकुल को आधी जीवन आशा दीनी ॥ जो मोसो हँसि मिले होत मै तासु निरन्तर चेरो । बस गुनही गुन निरखत तिह-मधि सरल प्रकृति को प्रेरौ ॥ यह स्वभाव कौ रोग जानिये मेरो बस कछु नाही । fra नव बिकल रहत याही सो सहृदय बिछुरन माँही ॥ सदा दारु योषित सम बेबस आज्ञा मुदित प्रमानें । कोरी सत्य ग्राम को बासी कहा " तकल्लुफ" जानै ॥" इस कविता की पिछली ६ पक्तियों में सत्यनारायणजी ने अपने चरित्र की ओर सकेत किया है । निर्दोष और प्रेममय सरलता ही उनके जीवन मे सबसे अधिक आकर्षक वस्तु थी । अस्तु, 'अब कोरे सत्य ग्राम के बासी को' गृह-जजाल मे फँसने का समय आ गया । वे कागज के टुकड़े पर हिसाब लगाने बैठे हँसुनी ४०) पहुँची } १००) बाजू २०) १० लच्छे झाझन करधनी अंगूठी } ३०) }२५) लहँगा दुपट्टा. (५०) चद्दर
SR No.010584
Book TitleKaviratna Satyanarayanji ki Jivni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Chaturvedi
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year1883
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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