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पं० सत्यनारायण कविरल इकदिन जो माधुर्य कान्तिमय सुखद सुहाई। मंजु मनोरम मूरति जाकी जग जियभाई ॥ देखत तुम निश्चिन्त जात ताके अब प्राना । अभागिनी शोकात कहहु को तासु समाना ।। लिखन रह्यो इक ओर तासु पढिबोहू त्याग्यो। मातासो मुख मोरि कहाँ तुव मन अनुराग्यो । शुभ राष्ट्रीय बिचारनु को जब पुण्यप्रचारा ! कैसो याके सग कियो तुमने उपकारा III रह्यो बनावन याहि राष्ट्रभाषा इकओरी । उलटो जासु अनिष्ट करन लागे बरजोरी॥ या जीवन-संग्राम माहिं पावत सहाय सब । नाम लैन ह तज्यो किन्तु तुमने याको अब! क्यो जासो मन फिरयो कृपा करि कछक जतावी । वृथा आतमा या ब्रजभापा की न सतायो । जिनके तुम बस परे अहहिं ते सकल बिमाता । ब्रजभाषा ही शुद्ध सस्कृत सांची माता ॥ मातृहृदय को प्रेम मातृहृदही मे आये । ताको पावन स्वाद विमाता कबहुँ न पावे।। टपकावति प्रेमाश्नु पुलकि तन पूत प्रेमसो । भरि-भरि देखत नैन तुमहिं जो नित्यनेम सो॥ तिहदिसि चितवत नाहिं कहां की नीति तिहारी। पुण्यप्रकृति तजि प्रतिकृति ताकी लगति पियारी ।। काज न जब कुछ करत सिथिलता तन में ब्यापत । यही सोचि जननी ब्रजभाषा निसिदिन कापत ॥ सुत-सेवा-हित तासु रुचिर रुचि रहत' सदा ही। जनमे पूतकुंपूत कुमाता माता नाहीं !!