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________________ ८० श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तुति । पूतं व्रतं निरुपमं सुखशान्तिदं च वंद्य त्वयैव कथितं परमं विशुद्धम् । वामद्य योगनिपुणा मुनयोपि भक्त्या स्वोक्षदं अवहरं हृदि धारयन्ति ॥५॥ अर्थ- हे देव ! इस संसारमें जो व्रत पवित्र हैं, उपमा रहित हैं, सुख और शांतिको देनेवाले हैं, वदनीय हैं, सर्वोत्कृष्ट हैं और विशुद्ध हैं, हे प्रभो ! वे सब व्रत आपने ही निरूपण किये हैं । इसीलिये योगधारण करने में अत्यंत निपुण ऐसे मुनि लोग भी आजतक आपको स्वर्गमोक्षको देनेवाले और संसारको नाश करनेवाले समझकर भक्तिपूर्वक हृदयमे धारण करते हैं । सिंहासने मणिमये घटिते सुरेन्द्रैः भामण्डलैर्निरुपमैवरदीप्तिपुंजैः। तिष्ठन् जिनश्च शुशुभे मुनिसुव्रतेशः पूर्वाचले स्वकिरणैः सविता यथैव ॥७॥ अर्थ- हे जिन ! हे मुनिसुव्रतनाथ ! हे भगवन् ! इन्द्रोंके द्वारा बनाये हुए मणिमयसिंहासनपर विराजमान हुए आप उपमारहित और श्रेष्ठ कांतिके समूहरूप भामंडलसे ऐसे सुंदर शोभायमान हो रहे थे, मानों पूर्वाचल पर्वतपर अपनी किरणोंसे सूर्य ही शोभायमान हो रहा हो ।
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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