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________________ श्रीशान्तिसागरचरित्र | वहां पर सबने वरदत्त, सागरदत्त और वरांग नामके महामुनियोंकी वंदना की तथा सिद्धक्षेत्रकी वंदना की इसप्रकार वदना कर वे आचार्य कृतकृत्य हुए । ध्यानं तपो जपं कुर्वन् स्वात्मानं चिंतयन् गिरौ । संघेनसह संघ श्रीः दिनानि कतिचित्स्थितः ॥२८॥ अर्थ — उस पर्वत पर ध्यान, तप, जप करते हुए और अपने आत्माका चितवन करते हुए, वे संघाधिपति अपने संघके साथ कुछ दिनतक वहां ठहरे । शान्तिसागरसूरेश्व बांधवा अपि धार्मिकाः । तेषां व्रतानि वक्ष्येऽहं गृहीतानि मुदा च यैः ॥२९ अर्थ - आचार्य शांतिसागरके भाई भी वडे धार्मिक हैं, अब उनके व्रतोको कहता हूं जो कि उन्होंने हर्ष पूर्वक लिये हैं । ज्यायांश्च देवगौडाख्यो बंधुर्धर्मपरायणः । त्यक्त्वा मोहं कुटुंबं चागृहीच्च क्षुल्लक व्रतम् ॥३०॥ अर्थ - इनका सबसे बडा भाई देवगौडा है, वह बहुत धर्मात्मा है। उसने भी मोह और कुटंबको छोडकर क्षुल्लक व्रत धारण कर लिये हैं । शुद्धव्रतस्य तस्यास्ति नाम सन्मतिसागरः । द्वितीयः आदिगौडाख्यः सच्छ्रावकशिरोमणिः। ३१ अर्थ — शुद्धव्रतको धारण करनेवाले उन क्षुल्लकका नाम : सन्मतिसागर रक्खा गया है । दूसरे बडे भाईका नाम आदिगौडा १
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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