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________________ AAAAAnmove १०८ श्रीशान्तिसागरस्तुति । शान्तिसागरशिष्येण कुंथुसागरयोगिना । भवबीजविनाशाय स्तोत्रमेतत्कृतं मया ॥२॥ __ अर्थ- जो शांतिसागर स्वामी श्रेष्ठ जाति और श्रेष्ठ कुलमें उत्पन्न हुए हैं, जो चौवीस प्रकारके परिग्रहोसे रहित हैं, समस्त दोषोंसे रहित हैं, अपने आत्मामें लीन हैं, आत्मासे उत्पन्न हुए आनंदमें जो सदा मन हैं, उत्तम क्षमा आदि दशों धौके पालन करनेमें जो सदा तत्पर हैं, जो भव्य जीवोंको स्वाध्याय, ध्यान, धर्ममें स्थिर करनेवाले हैं, जो जैनधर्मकी प्रभावना करने में अत्यंत निपुण हैं, जो सब जीवोंके दुःख दूर करनेवाले हैं, जो माया, मिथ्यात्व ओर निदान इन तीनों शल्योंसे रहित हैं, अभिमानसे रहित हैं, अत्यंत शांत हैं, समस्त जीवोंकी रक्षा करनेवाले हैं, जो निंदा, स्तुति वा संयोग वियोगमें सदा समतारसमें लीन रहते हैं, जो आचार्योंमें होनेवाले छत्तीस गुणोंसे सुशोभित हैं, समस्त मुनियोंका समूह जिनको नमस्कार करता हैं, जो द्रव्य क्षेत्रके अनुसार प्रायश्चित्त देते हैं, जो सदा धीरवीर रहते हैं, जो क्षमा धारण करनेमें शूर वीर रहते हैं, जो दयालु हैं, भक्तोंमें प्रेम करनेवाले हैं, जो शान्तिके ममुद्र हैं, दयाकी मूर्ति हैं, जो तत्वज्ञानमें सदा लीन रहते हैं, जिनका आत्मा परम पवित्र हैं, सब लोग जिनकी पूजा करते हैं, जिनका आत्मा स्तुति करने योग्य है, जो ध्यान धारण करनेमें सदा तत्पर रहते हैं, जो मुनि और श्रावकोंके चारित्रको निरूपण करनेवाले हैं और जिन्होंने भारतवर्षमें सब जगह
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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