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[७] बडी २ उपाधियोंसे विभूषित विद्वानको हम आपसे तुलना नही __ कर सकते । क्यों कि आपमें केवल ज्ञान ही नही है अपितु चारित्र
जो कि ज्ञानका फल है वह पूर्ण अधिकृत होकर आपमें विद्यमान है। इसलिये आपमें स्वपरकल्याणकारी निर्मल ज्ञान होनेके कारण आप सर्वजनपूज्य हुए हैं। आपकी जिसप्रकार रचनाकालमें विशेष गति है उसी प्रकार वक्तृत्वकलामे भी आपको पूर्ण अधिकार है। श्रोतावोंके हृदयको आकर्षण करनेका प्रकार, वस्तुस्थितिको निरूपण कर भव्योंको संसारसे तिरस्कार विचार उत्पन्न करनेका प्रकार आपको अच्छी तरह अवगत है। आपके गुण, संयम आदियोंको देखनेपर यह कहे हुए विना नही रहसकते कि आचार्य शांतिसागर महाराजने आपका नाम कुथुसागर बहुत सोच समझकर रखा है। यह आपका संक्षिप्त परिचय है। पूर्णत: लिखनेपर स्वतंत्र पुस्तक ही बन सकती है।
ग्रन्थसार । इस ग्रंथमें महर्षिने चतुर्विंशति तीर्थंकरोंकी स्तुति की है। प्रत्येक स्तुति सरल व मृदु शब्दोंसे अंकित होनेके अलावा गंभीर अर्थसे भी युक्त है। चतुर्विंशतिजिनस्तुतिके बाद गुरुभक्तिपूर्वक शांतिसागर महाराजकी स्तुति की है | शांतिसागर स्तुतिके बाद शांतिसागर महर्षिका चरित्र चित्रण किया है। चरित्रके मुख्यतः चार विभाग किये गये है। दक्षिण दिक संधिमे आचार्य महाराज के दक्षिण विहार, वहाँकी धर्मप्रभावना, चातुर्मास योग आदिका वर्णन किया गया है। पूर्वदिक संघिमें दक्षिण विहारको समाप्त कर सम्मेदाचल विहार व वहां की पच फल्याणिक प्रतिष्ठा व संघभक्त