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श्रीमहावीरस्तुति । १०१ सुप्राणिनां को परिपालनार्थ
स्वर्मोक्षदोऽयं क्रियते हि धर्मः । मोक्षार्थिभव्यैरसुहिंसने च
स्वप्ने प्रवृत्तिर्न कदापि कार्या ॥१७॥ अर्थ- इस संसारमें प्राणियोंकी रक्षा करनेके लिये ही स्वर्गमोक्ष देनेवाला इस दयाधर्मका पालन किया जाता है । इसलिये मोक्षकी इच्छा करनेवाले भव्यजीवोंको स्वप्नमें भी प्राणियोंकी हिंसा करनेमें अपनी प्रवृत्ति कभी नहीं करनी चाहिये। विचारशून्यैश्च तथापि हिंसा
धर्मार्थकार्ये क्रियते हि मूखैः । क्रमेण गच्छन्ति ततो भवन्ति
दीना दरिद्रा नरकं निगोदम् ॥१८॥ अर्थ- इतना समझकर भी जो लोग विचार रहित हैं और मूर्ख हैं, वे लोग धर्मार्थ कार्यों में हिंसा करते हैं अर्थात् देवी-देवताओंपर बलि चढाते हैं, वा यज्ञादिकमें हिंसा करते हैं, ऐसे नासमझ लोग अनुक्रमसे नरक निगोदमें जाते हैं और फिर वहांसे निकलकर दीन दरिद्री होते हैं। भावेन येनैव भवेद्धि कोपो
हिंसापि भावेन भवेद्धि तेन ।