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१०० श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तुति । निधि और सदा सुख देनेवाली मोक्षलक्ष्मीकी हानि होती है । भावार्थ- कपायके कारण ही इस जीवको मोक्षलक्ष्मीकी प्राप्ति नहीं होती। अवन्ति ते क्रोध.चतुष्टयाद्धि
दीना दरिद्रा निजबोधहीनाः । हिंसापि भीमा भवति प्रकर्षा
ततश्च भव्य हृदि रोधनीयम् ॥१५॥ अर्थ- हे भगवान् ! इन्हीं क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों कपायोंके कारण ये जीव दीन दरिद्री होते हैं और आत्मज्ञानसे रहित होते हैं । तथा इन्हीं कपायोंके कारण अत्यंत भयंकर और तीव्र हिमा होती है । इसीलिये भव्यजीवोंको अपने हृदयमें इन चारों कपायोंकी रोक रखनी चाहिये । अपने हृदयमें कपायोंको उत्पन्न नहीं होने देना चाहिये । यत्रास्ति हिंसा न दयास्ति तत्र
स्वप्नेपि धर्मो न दयां विना च । स्थितस्ततः क्रोधचतुष्टयं च
यत्रास्ति तत्रास्ति दया न धर्मः॥१६॥ अर्थ-- तथा जहांपर हिंसा होती है वहांपर दया कभी नहीं हो सकती और जहांपर दया नहीं होती वहांपर स्वप्नमें भी कभी धर्म नहीं हो सकता। इसप्रकार यह बात निश्चित हो जाती है कि जहापर क्रोध, मान, माया, लोभ होते हैं, वहांपर दयारूप धर्म कभी नहीं होसकता ।