SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्तिम पहर गत्रि का मौन निगा थी गहन चन्द्रमा झांक रहा था एक छोर मे गगन के थक कर नारे अलमाये, अकुला रहे थे नभ में वेष्टिन, कोमल अंग लोह श्रृंखलाओं में कठोर भघिर बह रहा था गोगे कमनीय त्वचा में चन्दनवाला अपूर्व मन्दरी अभागिन नवयौवना पड़ी थी म पर केग वोले गहन निद्रा में दिव्य पुरुष प्रकट हुआ गिग्वा मा हिमाच्छादिन उनुग श्रृंग पर मानो उतर रही हो गजमी म्वर्णप्रभा भोर की नत नयन, कोमल चग्ण, वलिप्ठ अंग, अपूर्व यौवन मौन्दर्य प्रपात मानो नहा रहा था अपने ही वेग में 'मैं हरण कम्गा दुग्व तुम्हारे कोमलांगी भतल पर अभी चल रहे है चरण मेरे' कौन कहता है नारी को अयोग्य बताया परम ज्ञान का, दिव्य तीर्थकर ने अयोग्य है वो वेड़िये जिनमे जकड़ लिया है पुरुप ने इम आनन्दमयी को अनाधिकार शामन उमके नारीत्व पर स्वावलम्बन और आत्माघार को जगने नहीं दिया उसके इतिहाम द्रोह करता रहा नारी से 88
SR No.010572
Book TitleVarddhaman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmal Kumar Jain
PublisherNirmalkumar Jain
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy