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________________ जैन परम्पग तो म्वय इम बान को अर्मे मे कहनी आई है । वेदों में म्वय ऋषभदेव आदि नीन नीर्थकों के नाम पूज्य व्यक्तियों की श्रेणी में उल्लिविन है। इसके माथ मोहनजोदडों आदि की खुदाई मे प्रगट होता है कि भारत के मूल निवामी जैन धर्म के अनयायी थे । इममे यह बान मिद्ध होती है कि प्रागनिहामिक युग में जब आर्यों और अनार्यों के अगटे मना हेतु नही हुए थे और मनुष्य निर्विघ्न रूप से मभ्यता की ओर बढ़ रहा था उम ममय उनके विचार मन्य के अधिक निकट थे क्योंकि तब वह ममम्न मनप्य जाति के कल्याण की वान और अच्छी नगह मोच मकना था। नीर्थकों की परम्पगमे ग्ग, वर्ण, जाति के भेदो में मक्त विचारधाग के बीज बमे है । वे अनार्यों के भी गम थे और आर्यों के भी। उनकी पूजा दोनों ने ममान रूप मे की। अनः निश्चय ही उनका दर्शन वह विलक्षण मत्य अपने मे रखता था जो द्वन्द्वरत इन दोनो जातियों को ममान रूप मे अपील कर सकता था। बिहार के भील और जयपुर के पाम के मीनागृजर जिम श्रद्धा मे आज भी तीर्थकरो की उपामना करने है वह याद दिलाती है उम प्रागनिहामिक युग की जब अनार्य भी निर्भय होकर अपने वैभवशाली प्रामादो और नगरों में तीर्थकगे का जयघोष करते थे। मनुस्मृति इमकी माक्षी है कि जैन धर्म वेदों में प्राचीन है और यग के आदि में स्थित था। उममे विमलवाहनादिक मन और जैन कुलकगे के नाम लिखे है। निम्न श्लोक प्रथम जिन ऋषभदेव को मार्ग दर्शक तथा मुगमग दोनों के द्वारा पूजिन कहता है : कुलादिबीजं मर्वेषा प्रथमो विमलवाहनः । चक्षुप्मान् यशस्वी वाभिचन्द्रोऽथ प्रमेनजिन् ॥१॥ मन्देवी च नाभिश्च भग्ने कुल मत्तमाः । अष्टमी मम्देव्या तु नाभेजति उग्क्रमः ॥२॥ दर्शयन् वर्त्म वीराणा मगमग्नमस्कृतः । नीतित्रितयकर्ता यो युगादो प्रथमो जिन. ॥३॥ 76
SR No.010572
Book TitleVarddhaman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmal Kumar Jain
PublisherNirmalkumar Jain
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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