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________________ से हमेशा के लिये लुप्त हो गई । भारतीय जनमानम में सत्य का यह मिताग बहुत गहगई तक धंस गया । माघारण मे साधारण हिन्दू भी यह जान गया कि पशुओं की वलि में पाप मिलता है आन्मा का परिष्कार नहीं होता । इस तरह महावीर और उनमे पूर्व के तीर्थकर हमे हजारों वर्ष पूर्व उम सभ्यता के मर्य की ओर ले गये जिम तक पहुंचने में पश्चिम को हजारों वर्प और लगे। यदि हम वृहदारण्यक उपनिषद् १:१ देन्ये नो उममें जिम ढग में अश्वमेघ यज्ञ का जिक्र किया गया है उममे प्रगट होता है कि यह ममार त्याग का संकेत ( Symbol ) है। जब अव की वलि दी जाती है तो हम ममार की बलि दे रहे है. जिम तरह के मंमार मेहम चिपटे हुए थे आज तक उमका हम बलिदान करते है । इस विचार को प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् पोलड्यशेन ने वहुन मन्दर और विस्तृत ढग मे अभिव्यक्त किया है। गोपेनहावर ने भी वृहदारण्यक की दमविचारधागवाजिक किया है । परन्तु श्रेवर पहला परिचमी विद्वान है जिमने दमको एक बीमार दिमाग की उत्पत्ति कहा था । वास्तव में ऐमा प्रतीत होता है कि वैदिक काल भी आर्य जाति के मम्तिाक और आत्मा की चरम थिनि का काल नही था। अनार्यों के माथ निरन्तर यद्ध करने के कारण आर्य जाति का मनम ढीला, विकृन और मैला हो गया था। ये इनिहाय मे प्रगट है कि भाग्न के मूल निवामी अनार्यों को मार कर और खदेड़ कर और उनके माथ अत्याचार करके आर्यों ने अपनी मत्ता ग्थापित की। अपने उस पाप को छपाने के लिये कभी उन्होंने अनार्यों को गक्षम कहा, कभी दम्य, कभी दानव । उनकी स्त्रियों का नो वरण कर लिया पग्न्न उनसे मामाजिक सम्बन्ध स्थापित नहीं किये । ये अनेक ज्यादतिएं थी जिनका भार आर्यों की आत्मा पर था। इस कारण उन्होंने पावलि आदि अमभ्य परम्पगओं को मान्यता दी। हाइनग्नि जिमर और मिन्वानलेवी आदि विद्वानों ने अपनी खोज में मिद्ध कर दिया है कि जैन धर्म वेदों मे हजारों वर्ष पुगना है। 75
SR No.010572
Book TitleVarddhaman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmal Kumar Jain
PublisherNirmalkumar Jain
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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