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________________ श्रावक इसके माथ महावीर का दूमग विचार हमारे सामने आता है । वे ' कहते है कि मनना एक कला है। एक अच्छे श्रोता बनो। अन्छा श्रावक होना मोक्षमार्ग है । अविश्वाम क्यों होता है ? हमे दूमगें का स्वार्थ नजर आने लगता है उनके वर्मों में। उनकी बानाम हम उनका म्वार्थ दीग्वने लगता है। उनके स्वार्थ में हमागम्वार्थ टकगने लगता है। महावीर कहते हैं कि अन्ले श्रीता बनी। यह अविश्वास का मेरु दूगगे की बान मनने नहीं देगा। एमे विचार गरी उत्पन्न होने है जो कानो को अवरुद्ध कर देन है। जो कहा जा रहा है में गनन नहीं देने या उम एम तरह इन्टरप्रेट करके हममं प्रविष्ट करने है कि अर्थ का अनर्थ हो जाता है। अविश्वाम धन शब्दों का विरोध न करें और ये दोनों एक दूसरे का मत्कार करें। टमी नगह हमारे ग्वार्थ एक दूगर का सम्मान करें। म्वार्थ नो मत्र स्वार्थ है। हमाग म्वार्थ दुमगें के स्वार्थ गे थॉट होने हए भी अपने को उमीनल पर ममझे । हम पायग कि अविश्वाम, गनी वानं, मेग म्वार्थ, दूमगे का म्वार्थ--ये चागे चीज दरअगल एक विन का महयोग कर रही है। यह है अमन की शक्ति । परन्त ग नल पर नियम यह है कि जितना ये चार म्प एक दूसरे का महयोग करेंग उनना ही एक दूमरे को neutralive करेंगे । जितना एक दूसरे का विरोध करंग उनन ही एक इमर को बल देंगे। माया का विग्नागोगा ही है जमे को चोगें का ग्रप ऐगी यक्ति कर कि जंगे ही उनमें कोई पनदा जाय लोगों की भीट में घमकर दूम माथी उमपीटने लगे। लोगों को उन पर शक नहीं होगा।थोडा पीटकर वे अपने माथी को डाले जायंगे । माया के इन चार रूपों का पारम्परिक विरोध भी छमभग है। महावीर 55
SR No.010572
Book TitleVarddhaman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmal Kumar Jain
PublisherNirmalkumar Jain
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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