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________________ जीवन का प्रथमचरण | ४३ बालकों की चीख-चिल्लाहट से वातावरण भयाक्रान्त बन गया, तभी "डरो मत, शान्त रहो !" वर्धमान ने कहा और ऊपर से ही छलांग लगाई, नाग फुकारता हुआ जैसे ही वर्धमान पर झपटा, वर्धमान ने उसका फन पंजे में पकड़ लिया और एक झटका देकर उसे यों फेंक दिया जैसे पुरानी अधजली रस्सी का टुकड़ा हो । इस साहमी कृत्य पर बालकों ने वर्धमान की पीठ थपथपा कर बधाई दी। कुछ समय बाद दूसरा खेल प्रारम्भ हुआ, जिसे 'तिदूषक-क्रीड़ा' कहते थे। इस खेल में विजेता बालक दूसरे की पीठ पर सवार होकर खेल प्रारम्भ होने के स्थान तक जाता । खेल चल रहा था कि बालक रूप-धारी देव वर्धमान की टोली में जा मिला। खेलते-खेलते हारकर उसने वर्धमान को अपनी पीठ पर चढ़ाया और क्षणभर में ही उसने सात ताड़ जितना विशाल रौद्र रूप बना लिया। उसका भयानक रूप देखकर सभी बालक भौंचक्के-से रह गये । भय के मारे उनके प्राण सूखने लगे। तभी साहसी वर्धमान ने रौद्ररूपधारी बालक की पीठ पर कसकर एक मुक्का मारा। उसके मुंह से चीत्कार निकल पड़ी। क्षणभर में ही वह छोटा-सा रूप बनाकर वर्धमान के चरणों में झुक गया । वर्धमान व अन्य साथी उसे घूरकर देख रहे थे कि तभी मायावी बालक गायब हो गया और उसके स्थान पर एक दिव्यरूपधारी देव वर्धमान को नमस्कार कर उनकी प्रशंसा कर रहा था--"कुमार ! तुम महान बलशाली हो, तुम्हारी निर्भीकता प्रशंसनीय है, मैं आया था तुम्हारे साहस की परीक्षा लेने परीक्षक बनकर और अब जा रहा हूं प्रशंसक बनकर ।" अनुश्रुति के अनुसार आठ वर्ष की आयु में ही कुमार वर्धमान अपने अपूर्व व अपराजेय साहस के कारण 'महावीर' कहलाने लग गये। देवता द्वारा संबोधित उनका यह विशेषण आगे चलकर सम्पूर्ण रूप में सार्थक हुआ। विद्याशाला की ओर उपलब्ध साहित्य में वर्धमान के साहमी जीवन का परिचय देने वाली ये दो घटनाएं मिलती हैं। पर इनके प्रकाश में यह तो स्पष्ट हो ही जाना चाहिये कि वे एक क्षत्रियकुमार थे, इसलिये भी साहस, शौर्य और पराक्रम प्रदर्शन के अनेक प्रसंग सहजरूप से ही उनके जीवन में घटित हुए होंगे। क्षत्रियोचित धनुर्विद्या का अभ्यास भी किया होगा, किन्तु शक्ति प्रदर्शन के इन हिंसा-बहुल प्रयोगों में उनकी रुचि कभी नही हुई होगी। वे गम्भीर और शान्तिप्रिय थे, न खेल-कूद में उनकी अत्यधिक रुचि थी और न शस्त्र-विद्या सीखने में। उनकी उदासीन वृत्तिदेख कर
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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