SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२ | तीर्थकर महावीर पालन-पोषण ___ वर्धमान एक वैभवशाली यशस्वी राजवंश के राजकुमार तो थे ही; किन्तु उनके आमपास में जो सुख-सुविधा और आमोद-प्रमोद के साधन जुटे हुए थे; उन्हें देखकर उनको देवकुमार भी कह सकते हैं। किन्तु देवकुमार को माता-पिता का वह प्यार-दुलार कहां नसीव होता है, जिसका अपार सागर महावीर के आस-पास लहगता था, महारानी त्रिशला स्वयं पुत्र का लालन-पालन करती थी, फिर भी उसकी विशेष मार-संभाल के लिये पाँच निपुण धाइयाँ (आया) भी रखी गई थीं। उन पांचों के काम बंटे हुए थे-दूध पिलाना, स्नान कराना, वस्त्र-आभूषण पहनाना, गोद में लिये घूमना और विविध खेल-कूद कराना। साहस-परीक्षा वर्धमान जन्म से ही अनन्त बलशाली थे, यह पहले कहा जा चुका है। उनके अद्भुत पराक्रम व साहस से भले ही पास-पड़ोस वाले कम परिचित रहे हों, पर ज्ञानी व देवताओं से यह तथ्य छिपा हुआ नहीं था। एकबार शकेन्द्र ने अपनी देव-सभा में चर्चा करते हुये कहा था . "राजकुमार वर्धमान बालक होते हुये भी बड़े पराक्रमी और साहसी हैं। कोई देव, दानव व मानव उनको पराजित व भयभीत नहीं कर सकता।" एक आठ वर्ष से कम आयु के बालक की शकेन्द्र द्वारा प्रशंसा करना आश्चर्यजनक बात थी। साथ ही देवताओं के लिये ईर्ष्या का भी विषय था। एक देव ने देवराज के इस कथन को अतिशयोक्ति माना और वर्धमान के बल व साहस की परीक्षा करने की नीयत से कुण्डपुर के उद्यान में आ पहुंचा। वर्धमान वहां अपने साथियों के साथ क्रीड़ा कर रहे थे। यह खेल आमलकी क्रीड़ा कहलाता था, जिसमें एक वृक्ष को निशाना बना कर सब बालक उस ओर दौड़ते । जो सबसे पहले वृक्ष पर चढ़कर उतर आता वह जीत जाता, और पराजित बालकों के कन्धों पर चढ़कर जहाँ से दौड़ प्रारम्भ हुई, वहाँ तक जाता। वर्धमान दौड़ कर सबसे पहले उस वृक्ष पर चढ़ गये थे। परीक्षक देव ने एक काले नाग का रूप धारण किया और उस वृक्ष के तने पर लिपट गया । वर्धमान ज्यों ही नीचे उतरने लगे, नाग ने फन उठाकर फुकारा। यह दृश्य देखकर दूर खड़े अन्य बालकों की आंखों के सामने अंधियारी छा गई, भय के मारे पसीना छूट गया, और वे चीख पड़े-"वर्धमान ! सावधान ! नीचे मत उतरो ! काला नाग है।"
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy