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________________ ४४ | तीर्थंकर महावीर माता-पिता ने सोचा होगा-"कुमार वर्धमान को शस्त्र-विद्या में जब कोई रुचि नहीं है तो शब्द-विद्या में तो निपुण करना ही चाहिये। क्योंकि शब्दविद्या में प्रायः ब्राह्मणों का प्रभुत्व चला आ रहा है, विदेहराज जनक, कैकेय नरेश, प्रवाहण जैवालि, तथा पार्श्वकुमार जैसे कुछेक क्षत्रिय-पुत्र ही ऐसे हुए हैं जो शस्त्रविद्या के साथसाथ शब्दविद्या एवं आत्मविद्या के क्षेत्र में भी प्रभुत्वसम्पन्न थे। वर्धमान को भी सम्भवतः उसी विद्या में विशेष रुचि हो, अत: माता-पिता ने कुमार को विद्याशाला भेजने का निश्चय किया। यहां पर यह भी स्मरण रखना चाहिये कि वर्धमान तो जन्मजात ज्ञानी थे। शुकदेव जैसे गर्भ में ही वेदविद्या के पारगामी बन गये थे, कुमार वर्धमान भी उसी प्रकार गर्भ में ही मति, श्रुत एवं अवधिज्ञान से सम्पन्न थे। किन्तु उन्होंने शक्ति की भांति ज्ञान को भी पचा लिया था। शक्ति-प्रदर्शन के सहज प्रसंग आ गये तो लोगों को उनकी वीरता का पता चल गया। किन्तु ज्ञान-शक्ति के प्रदर्शन का अभी तक कोई ऐसा प्रसंग नहीं बना था। एक दिन माता-पिता ने शममहर्त देखकर एक नये विद्यार्थी के रूप में वर्धमान को पाठशाला में भेजा। वर्धमान फिर भी गंभीर थे। वे माता-पिता को इच्छा का आदर करते थे, आचार्य का भी सम्मान रखते थे। इसलिये विज्ञ होते हुये भी एक साधारण बालक की भांति गुरु का आदर करके चुपचाप उनके समक्ष बैठ गये। आचार्य ने उन्हें वर्णमाला का पहला पाठ पढ़ने को दिया। वर्धमान चुपचाप बैठे रहे। कुमार जन्मजात विद्वान हैं, इसका ज्ञान आचार्य को न था और न मातापिता को । कुमार ने स्वयं भी अपने मुंह से कुछ कहा नहीं, फिर भेद खुले तो कैसे? रहस्य का पर्दा उठे तो कैसे ? तभी एक प्रसंग बना। एक तिलकधारी वृद्ध ब्राह्मण ने पाठशाला में प्रवेश किया। उसकी मुख-मुद्रा से लगता था कोई गम्भीर विद्वान है, ब्रह्मतेज से सम्पन्न ऋषि जान पड़ता है। आचार्य उनके सम्मान में खड़ा होना ही चाहते थे कि विप्रदेव ने कुमार वर्धमान की ओर मुड़कर अत्यन्त नम्रतापूर्वक प्रणाम किया। पाठशाला के अन्य विद्यार्थी चकित-से, आचार्य स्वयं दिग्विमूढ़-से खड़े देख रहे थे। विप्रदेव ने वर्धमान से शब्द-शास्त्र के अनेक गम्भीर प्रश्न पूछे । व्याकरण की जटिल पहेलियां भी पूछी और कुमार अस्खलित-रूप से सबका उत्तर देते चले गये। आचार्य के पैरों के नीचे से धरती खिसकने लगी। वे समझ नहीं पाये कि अष्टवर्षीय कुमार वर्धमान में क्या अलौकिक प्रतिभा है; जो इतने गम्भीर प्रश्नों का यों अस्खलित उत्तर दिये जा रहे हैं ? और यह ब्रह्मर्षि कौन हैं ? कहाँ से आये
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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