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________________ साधना की पूर्व भूमिका | २५ राजकुमार होकर भी वह उनकी सेवा करने लग जाता, अपने हाथ से उन्हें सहायता करके सान्त्वना दिया करता । साधु सन्तों का तो वह भक्त था। राजकुमार के इन संस्कारों को देखकर राजा जितशत्रु उस पर कभी-कभी चिढ़ जाता था। किन्तु फिर भी वह अन्तर मन में गौरव का अनुभव अवश्य करता था कि पुत्र के हृदय में मानवता के कितने दिव्य संस्कार हैं ? समय पर 'नन्दन' राजसिंहासन पर बैठा, अब तो उसने दीन-गरीबों, साधुसन्तों के लिये अपना खजाना खोल दिया। अमात्य आदि उसे रोकने का प्रयत्न करते तो वह कहता-"प्रजा का यह धन क्या मेरी सुख-सुविधाओं के लिये है ? जिसका धन है, यदि उसे ही कष्ट पाना पड़ रहा है तो यह धन धूलि है । मेरा खजाना सेवा के लिये है, प्रजा का सुख ही मेरा सच्चा धन है।" लोग कहते थे कि ऐसा न्यायी, प्रजावत्सल और दयालु राजा आज तक कहीं देखा-सुना नहीं। कुछ समय बाद नन्दन राजा को वैराग्य हो गया। अपने उत्तराधिकारी को राज्य सौंप कर स्वयं अकिंचन अणगार बनकर साधना करने में जुट गया। नन्दन मुनि को तपस्या की धुन लगी तो ऐसो लगी कि दो-पांच उपवास ही नहीं, किन्तु मास-मास खमण का तप करने लगे । तप के साथ क्षमा, सेवा और ध्यान की त्रिवेणी भी बहने लगी। कभी वृद्ध व रुग्ण मुनियों की सेवा में जुटते तो अपना पारणा भी भूल जाते। कभी गुरुजी कहते-"नन्दनमुनि ! जाओ पारणा तो करो। तो मुनि नन्दन हाथ जोड़कर बोलते-"गुरुदेव ! खाते-खाते तो उम्र बीत गई, उससे कोई कल्याण थोड़े ही होगा, सेवा का अवसर तो जीवन में कभी-कभी मिलता है, आत्मा की सच्ची खुराक तो यही है।" इसप्रकार नन्दन मुनि की सेवापरायणता, क्षमा और सरलता जो भी देखता बाग-बाग हो जाता। ___इस प्रकार एक लाख वर्ष तक मुनि नन्दन निरन्तर मास-खमण की तपस्या करते रहे और उसमें सेवा, गुरु भक्ति, क्षमा, ध्यान आदि की उच्चतर साधना करते रहने से आत्मा विशुद्ध दशा में पहुंच गई। मुनि नन्दन ने तीर्थ कर गोत्र के योग्य बीस स्थानों की अनेक बार आराधना की और विशुद्धतम भावनाओं के साथ तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन किया।' १. तीर्थकर गोत्र उपार्जन करने के बीस स्थानक ये हैं१ अरिहन्त भक्ति ४ आचार्य भक्ति २ सिद्ध भक्ति ५ स्थविर भक्ति ३ प्रवचन भक्ति ६ उपाध्याय भक्ति ४
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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