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________________ २४ | तीर्थंकर महावीर ने बताया है कि उस एक जन्म के दुष्कर्मों के फलस्वरूप वह आत्मा अनेक जन्मों तक घोर यातनाओं के चक्र में में भटकता रहा । बाईसवें भव में एक रात्रपुत्र के रूप में जन्म लेकर घोर तपश्चर्या एवं वैराग्य युक्त साधना की। इस निष्काम साधना के पवित्र जल से पूर्वजन्म के पाप धुलकर साफ हो गये और वह तेईसवें भव में मूका नगरी (महाविदेह) में पुनः एक राजकुमार हुमा । यहाँ इसका नाम प्रियमित्र रखा गया। प्रियमित्र बड़ा ही प्रतापी था। पूर्वाजित साधना के पुण्य-फल के रूप में यहाँ वह छः खण्ड का अधिपति चक्रवर्ती बना। चक्रवर्ती वासुदेव से हर दृष्टि में महान होता है, ऋद्धि, समृद्धि, भोग-ऐश्वर्य एवं बल आदि दृष्टियों से ही नहीं, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से भी । यह माना गया है कि वासुदेव का पद सकाम साधना का परिणाम है अतः वह उस जन्म में भोगों का स्याग नहीं कर सकता; जबकि चक्रवर्ती के विषय में ऐसा नहीं है। वह अपार ऐश्वर्य को भोग कर भी अन्त में उसका त्याग कर सकता है और साधना के ऊर्ध्वपथ पर आगे बढ़ चलता है। वासुदेव की जीवनदृष्टि अन्त तक भोगोन्मुखी होती है जबकि चक्रवर्ती की जीवन धारा प्रायः भोग से त्याग की ओर मुड़ जाती है। प्रियमित्र चक्रवर्ती के समक्ष भोग की असीम सामग्री उपलब्ध थी किन्तु उसके अन्तर त्याग व संयम की प्रेरणा लहरा रही थी जो उसे भोगों के बीच भी त्याग की शिक्षा देती रहती, अंधकार में प्रकाश करती रहती। यही वैराग्य की हिलोरें उसे एक दिन उस चक्रवर्ती के नश्वर ऐश्वर्य से मोड़कर आत्मा के अनन्त ऐश्वर्य की शाश्वत सुखद छाया में ले गई । प्रियमित्र चक्रवर्ती ने पोट्टिल आचार्य के पास संयम ग्रहण कर जीवन को साधना में लगाया और खोया हुआ आत्मवैभव पुनः प्राप्त किया । अंधकार में भटकती हुई आत्मा को पुनः प्रकाश प्राप्त हुआ। विशुद्धि की पावन धारा प्रियमित्र का जीव स्वर्ग में जाकर पुनः मर्त्य लोक में अवतरित हुआ। छत्रा नामक नगरी में एक राजपुत्र बना । 'नन्दन' उसका नाम रखा गया। राजकुमार नन्दन बचपन से ही खाने-पीने और खेल कूद के प्रति उदास रहता था। किन्तु किसी रोगी को, दीन को या भिखारी को देखता तो उसका हृदय दया से भर उठता। १ विषष्टि० पर्व १०, सर्ग
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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