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________________ कल्याण-यात्रा | २१७ होकर नाचने और गाने लगता और कभी हालाहला को नमस्कार करने लगता । इस प्रकार बड़ी आकुलता, पीड़ा और असा मनोव्यथा के साथ उसका अंतिम समय बीता। उसे अंतिम समय में महावीर के साथ की गई कृतघ्नता, विद्रोह और दो मुनियों की हत्या पर पश्चात्ताप होने लगा। अंतिम क्षणों में उसने अपने शिष्यों के समक्ष-सचाई को स्वीकार कर लिया-"महावीर जिन हैं, सर्वज्ञ हैं, मैं पाखंडी हूं, पापी हूं, मैंने तुमको, संसार को और स्वयं को धोखा दिया है। मेरे मरने के बाद मेरी दुर्दशा कर लोगों को कहना-ढोंगी श्रमणघातक और गुरुद्रोही गौशालक मर गया।" जीवन भर दुष्कर्म, पाखंड और गुरुद्रोह करने वाला गौशालक अन्तिम समय में पश्चात्ताप की आग में अपने पापों को जलाकर कुछ पवित्र हो सका, और पापों के प्रति तीव्र गहरे व पश्चात्ताप की भावना के साथ स्वर्गवासी बना। अस्वस्थता और उपचार गौशालक की मृत्यु के साथ आजीवक संघ का सितारा अस्त हो गया और एक प्रखर श्रमण-विद्रोही की समाप्ति । गौशालक ने महावीर पर तेजोलेश्या छोड़ी, उससे तात्कालिक हानि तो अधिक नहीं हुई, किंतु उसकी प्रचण्ड ज्वालाओं ने अपना प्रभाव तो दिखाया ही। उसके ताप से महावीर को पित्तज्वर हो गया। ___ गौशालक की मृत्यु को छह मास पूरे हो रहे थे। भगवान महावीर मेंटिक ग्राम के सालकोष्ठक उद्यान में ठहरे हुए थे। पित्तज्वर एवं खूनी दस्तों के कारण महावीर का शरीर शिथिल एवं कुश हो गया था। भगवान के शरीर की रुग्णता देखकर कुछ लोग बातें करते जा रहे थे-"भगवान महावीर का शरीर बहत क्षीण (अस्वस्थ) हो रहा है, कहीं गौशालक की भविष्यवाणी सत्य न हो जाय ?" राह चलते नगरवासियों को यह बातचीत सिंह अनगार ने सुनी। सिंह अनगार सालकोष्ठक के निकट ही मालुकाकच्छ में ध्यान व तपःसाधना कर रहे १ गौशालक के सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा में कुछ मतभेद है। उसके अनुसार गौशालक पार्श्वनाथ परम्परा का एक मुनि था। भगवान् महावीर के धर्म-संध में वह गणधर पद पर नियुक्त होना चाहता था किंतु उसे यह गौरवपूर्ण पद नहीं मिला तो कुट होकर संघ से पृथक् हो गया और श्रावस्ती में भाकर बाजीवक सम्प्रदाय का नेता बना और स्वयं को तोषंकर बताने लगा। --भावसंग्रह गाथा १७६ से १७९ (देखें आगम० त्रिपि० एक अनुशीलन पृ० ३७) २ भगवती सूत्र शतक १५ में घटना पूर्ण विस्तार के साथ बताई गई है।
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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