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________________ २१८ | तीर्थकर महावीर पे। छठ-छठ तप और निरन्तर ध्यान में लीन रहने वाले तपस्वी सिंह ने जैसे ही लोकचर्चा सुनी, उनका ध्यान भंग हो गया, मन खिन्न हो उठा। वे सोचने लगे-"भगवान् महावीर लगभग छह महीने से अस्वस्थ हैं, पित्तज्वर व खूनीदस्त के कारण उनका शरीर अत्यन्त कृश हो गया है, क्या सचमुच गौशालक का भविष्य-कथन सत्य होगा? "हन्त ! यदि ऐसा हो गया तो ...? फिर संसार मेरे धर्माचार्य श्रमण भगवान् महावीर के सम्बन्ध में क्या कहेगा.....?" सिंह अनगार का हृदय दहल उठा । तपोभूमि से प्रस्थान कर वह भगवान् की ओर बढ़ा, मार्ग में ही सहसा उसके हृदय में हूक उठी, वह फूट-फूट कर रोने लगा। भगवान महावीर ने शिष्यों को संबोधित करके कहा- "आर्यों ! मेरा शिष्य सिंह मेरे रोग की चिंता से क्षुब्ध होकर विलाप कर रहा है। तुम जाओ और उसे आश्वासन देकर यहाँ ले आओ।" श्रमण मालुकाकच्छ की ओर गये। सिंह को रोता देखकर आश्वस्त कर बोले-"सिंह ! चलो ! तुम्हें धर्माचार्य श्रमण भगवान् बुला रहे हैं ?" सिंह भगवान् के चरणों में पहुंचा। वह कुछ क्षण तक उदास, स्तब्ध, भ्रांतसा भगवान् की कृश काया को देखता रहा । आश्वासन की भाषा में भगवान् बोले"वत्स सिंह ! मेरे भावी अनिष्ट की आशंका से तू रो पड़ा ?" "भगवन् ! बहुत दिनों से आपकी तबियत अच्छी नहीं है, यह विचार आने के साथ ही मुझे गौशालक की बात स्मरण हो बाई, और मेरा मन उचट गया और भीतर से सहज ही क्रन्दन फूट पड़ा।" "सिंह ! तुम कुछ भी बिता न करो ! बनी तो में दीर्घकाल (१५॥ वर्ष) तक इस भूमण्डल पर सुखपूर्वक विचरण करूंगा।" . "भगवन् ! हम यही चाहते हैं ? पर, बीमारी से आप कृश हो रहे हैं, इसे मिटाने का कोई उपाय नहीं है ?" "सिंह ! यदि तुम ऐसा ही चाहते हो तो, मेंठिय गांव में रेवती गाथापतिनी के पास इसकी औषधि है । तुम वहाँ पायो ! उसके पास दो औषधियां 1-एक कह से बनी हई तथा दूसरी बीजोरे से बनी हई। पहलो औषधि उसने मेरे लिये बनाई है, मतः वह अकल्प्य है, दूसरी औषधि उसने अन्य प्रयोजन से बनाई है, तुम उससे दूसरी (बीजोरे की) औषधि की याचना करो। वह रोग-निवृत्ति में उपयोगी सिद्ध होगी।"
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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