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________________ कल्याण-यात्रा | २१५ ही यह तुम्हारी आत्म-गोपन की चेष्टा है । तुम वही गौशालक होकर अपने को दूसरा बताने की झूठी कोशिश कर रहे हो ! ऐसा करके तुम किसी बुद्धिमान की आँखों में धूल नहीं झोंक सकते ...?" महावीर की सत्य घोषणा सुनकर गौशालक बापे से बाहर हो गया । वह जमीन पर पैर पीटता हुआ बोला-"काश्यप ! मालूम होता है, अब तुम्हारा विनाशकाल निकट आ गया है । यह समझ लो कि तुम दुनिया में थे ही नहीं ! मृत्यु का चक्र तुम्हारे सिर पर घूमने लग गया है""" गौशालक के ये उग्र और कर्कश वचन सुनकर महावीर के शक्ति-संपन्न शिष्यों के रक्त में उबाल आना स्वाभाविक था। गुरु का अपमान शिष्य के लिए मृत्यु से भी अधिक त्रासदायक होता है। फिर भी महावीर के संकेतानुसार सब श्रमण मौन रहे। सर्वानुभूति नाम के एक अनगार से यह सब नहीं सहा गया। वे उछल कर खड़े हो गए और बोले-"गौशालक ! कोई व्यक्ति किसी साधु पुरुष से एक भी हितवचन सुन लेता है तो वह उसे वंदन-नमस्कार करता है। भगवान महावीर को तो तुमने अपना गुरु माना था, इन्होंने तुम्हें शानदान दिया है, तुम आज ऐसे सर्वज्ञ पुरुष को भी निन्दा कर रहे हो? इन वीतराग भगवान् के प्रति भी इतना म्लेच्छ भाव बोर इतना उपद्वेष ! यह तुम्हारे हित में नहीं होगा।" इन वचनों ने गौशालक की क्रोधाग्नि में घी का काम किया। उसने उसी समय तेजोलेश्या का प्रयोग कर सर्वानुभूति अनगार के शरीर को भस्म कर डाला। और फिर उन्मत्त की भांति प्रलाप करने लगा। यह देखकर सुनमात्र नाम के अनगार की सहिष्णुता का बांध भी टूट गया। वे भी सर्वानुभूति अनगार की भांति गौशालक को समझाने गये । गौशालक ने उन पर भी तेजोलेश्या का प्रयोग कर आहत कर गला। वे भी अंतिम आलोचना कर समाधि-मृत्यु को प्राप्त हुए। अहिंसा के अवतार की धर्म-सभा में उन्हीं के सामने दो निरपराध मुनियों का बलिदान ! क्या अनहोना हो रहा था। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। इतने पर भी गौशालक की क्रोधाग्नि शांत नहीं हुई। वह क्रोध में अनर्गल प्रलाप करता रहा। उसके दुराचरण पर प्रभु ने एक बार फिर उसे समझाया। पर परिणाम उलटा ही आया। उसने रोष में आकर भगवान् महावीर पर ही अपनी तेजोशक्ति का प्रयोग कर डाला । उसका अटल विश्वास था कि वह महावीर को भस्म कर गलेगा, पर उसका विश्वास झूठा सिद्ध हुमा । गोशालक द्वारा फेंकी हुई तेजोलेश्या महावीर के शरीर से टकराकर पहाड़ से टकराती हुई तेज हवा की भांति लोटकर चक्कर काटने लगी । ज्वालाएं कुछ ऊंची उठी और फिर नौशालक के शरीर में घुस गई।
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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