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________________ २१४ | तीर्थकर महावीर "हाँ, मानन्द ! गोशालक अपनी तेजःशक्ति से किसी को भी भस्मसात् कर सकता है, किन्तु उसकी तेजःशक्ति किसी तीर्थकर को नहीं जला सकती। जितना तपोबल गौशालक में है, उससे अनन्तगुना तपोबल निग्रन्थ अनगारों में होता है, पर अनगार क्षमाशील होते हैं, कोष का निग्रह करने में समर्ष होते हैं, अतः वे अपनी तपःशक्ति का दुरुपयोग नहीं करते। अनगारों से अनन्तगुनी तप:शक्ति स्थविरों में होती है, और स्थविरों से अनन्तगुनी तपःशक्ति अर्हन्तों में होती है, किन्तु वे स्थविर तथा अर्हन्त भगवन्त क्षमाशील होते हैं। अपनी तपोलब्धि से वे किसी आत्मा को कष्ट नहीं पहुंचाते। "आनन्द ! तुम गौशालक के आगमन की सूचना गौतम मादि स्थविरों को दे दो। इस समय वह द्वेष, मात्सर्य एवं म्लेच्छभाव से आक्रांत है, वह मुंह से कुछ भी ऊलजलूल बोले, मगर कोई भी श्रमण उसका प्रतिवाद न करें। क्रोधाविष्ट नर यक्षाविष्ट जैसा होता है, क्रोष एवं मान के आवेश में मनुष्य कुछ भी दुष्कृत्य कर सकता है, इसलिए कोई भी श्रमण, गौशालक के साथ किसी प्रकार की चर्चा-वार्ता न करें।" अनगार मानन्द ने भगवान महावीर का सन्देश समस्त मुनिमण्डल तक पहुंचा दिया। तभी क्रोध में लाल-पीला हुमा गौशालक अपने आजीवक भिक्षुसंघ के साथ महावीर के समक्ष उद्धततापूर्वक आकर खड़ा हुमा । क्षणभर चुप रहकर वह बोला-"काश्यप ! क्या खूब कहा तुमने भी? में गौशालक मंखलिपुत्र हूं? तुम्हारा शिष्य हूं ? वाह ! वाह ! कितना अंधेर है ! सर्वश होकर भी तुम तो कुछ नहीं जानते ? यही है तुम्हारी सर्वशता ? तुम्हें मालूम होना चाहिए, कि तुम्हारा शिष्य मंखलि गौशालक तो कब का परलोक सिधार गया? .. "गौशालक के इस शरीर में मैं उदायी कुण्डियायन धर्म-प्रवर्तक की आत्मा हूं। मेरा यह सातवां शरीरान्तर-प्रवेश है। पर तुम्हें अब तक कुछ पता नहीं ! अभी भी अपने शिष्य गौशालक की रट लगाए जा रहे हो ? काश्यप ! सुनो ...!" और गौशालक ने उदायी कुण्डियायन से लेकर अपने तक सात शरीरान्तर-प्रवेश तक को कल्पित कहानी सुनाई और अन्त में पुनः हड़ स्वर में कहा-"अब तुम्हें पता चल मया न ? मैं गौशालक नहीं, किंतु मौशालक शरीरपारी उदायी कुण्डियायन हूं।" गौशालक को यों खुलकर निर्लज्जतापूर्वक बकवास करते देखकर महावीर मौन नहीं रह सके-"गोशालक ! जैसे कोई चोर एक-आध ऊन व पटसन के रेशे है, कई के छोटे से फूल से अपने को ढककर छिपाने की बालचेष्टा करता है, वैसी
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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