SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्याण-यात्रा | २१३ गणधर इन्द्रभूति भिक्षार्थ पर्यटन कर रहे थे, जब उन्होंने यह जनप्रवाद सुना तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुमा। वे भगवान के निकट आये और इस मिथ्या जनप्रवाद पर टिप्पणी करते हुए भगवान से पूछा-"भंते ! आजकल श्रावस्ती में दो तीर्थंकरों के विचरण की चर्चा हो रही है, क्या गौशालक सर्वज्ञ एवं तीर्थकर है ?" महावीर प्रारम्भ से ही सत्य के दृढ़ समर्थक रहे । जहां कहीं अन्धविश्वास, मिथ्याडम्बर, पाखण्ड व दम्भ देखते, वे उस पर कठोर प्रहार करते । भले ही उसका कुछ भी मूल्य चुकाना पड़े । गौशालक जैसे तेजःशक्तिसम्पन्न दुष्ट के साथ संघर्ष के परिणाम भी महावीर से छिपे नहीं थे, किन्तु उनकी प्रखर सत्यनिष्ठा उस समय मौन नहीं रह सकी, उन्होंने कहा-"गौतम ! गौशालक जिन व तीर्थकर कहलाने के योग्य नहीं। उसका हृदय राग-द्वेष, अज्ञान व मोह से कलुषित है. फिर वह जिन व तीर्थकर कैसे हो सकता है ? आज से चौबीस वर्ष पूर्व वह मेरा शिष्य बनकर रहा था, स्थान-स्थान पर अपने स्वच्छन्द एवं उद्दण्ड व्यवहार के कारण उसे अपमान, ताड़ना एवं भर्त्सनाएं सहनी पड़ी। एकबार तो अग्नि वेश्यायन तपस्वी की तेज:शक्ति से भस्म होते-होते मैंने उसे बचाया, फिर मैंने उसे तेजोलब्धि की साधना-विधि भी बताई । बस, वह थोड़ी-सी शक्ति और लब्धि पाकर आज अपने को तीर्थकर बताने लग गया है....."यह सब पाखण्ड है..."गौशालक का कथन सर्वथा मिथ्या प्रलाप है ........।" भगवान् ने गोशालक का पूर्व इतिहास भी बताया। गौशालक के सम्बन्ध में की गई महावीर की घोषणा गोशालक के कानों तक पहुंची, बस, सुनते ही वह आगबबूला हो उठा। महावीर द्वारा किया गया सत्योद्घाटन गौशालक के बढ़ते हुए सम्मान पर गहरी चोट थी। गौशालक तिलमिला उठा। वह बाहर आया, मानन्द नाम के एक अनगार भिक्षाचर्या करते हए उधर से निकले । गौशालक ने उसे रोककर कहा-"आनन्द ! जरा ठहर ! अपने धर्माचार्य महावीर से जाकर कह दे कि मुझ से छेड़-छाड़ न करें। उन्हें समझा दे कि मेरे विषय में कुछ भी अनर्गल कहना, सांप से भिड़ना है। उन्हें बहुत मान-सम्मान मिल चुका है, फिर भी उन्हें अब तक सन्तोष नहीं । इसलिए वे मुझसे टकराना चाहते हैं । बार-बार वे मेरे विषय में कहते हैं 'यह मंखलिपुत्र है, छपस्थ है, मेरा शिष्य रहा है। यह ठीक नहीं, जा, अपने धर्माचार्य को सावधान कर दे, मैं गाता हूं और अभी सबकी बुद्धि ठिकाने लगाता है।" यों कहते-कहते ही गौशालक की आंखों में खून उतर आया। उसके होठ फड़फड़ाने लगे। गौशालक की क्रोधपूर्ण गर्वोक्ति सुनकर श्रमण आनन्द जरा भयभीत हुए और तत्काल भगवान महावीर के निकट आकर सब बातें कहीं। फिर बानन्द ने पूछा"भंते ! क्या गौशालक अपने तपस्तेज से किसी को भस्म कर सकता है ?"
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy