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________________ कल्याण-यात्रा | १९७ प्रति कुछ विशेष कहना इष्ट नहीं था। पर स्थान स्थान पर उन्हें पापित्य श्रमणों का नकट्य अवश्य मिलता रहा। तीर्थकर काल में इस प्रकार के अनेक प्रसंग आते हैं, जब पापित्य श्रमण भगवान् महावीर के निकट बाकर उनसे विचार-चर्चा करते हैं, उनकी सर्वज्ञता के सम्बन्ध में आश्वस्त होते हैं, उनकी व पार्श्वनाथ की धर्मप्राप्ति के मूल लक्ष्य के प्रति समानता अनुभव करते हैं और वे स्वतःप्रेरित होकर भगवान् महावीर के धर्मसंघ में सम्मिलित हो जाते हैं। पार्श्वनाथ-परम्परा के सम्मिलन के कुछ प्रसंग यहां दिये जाते हैं। स्थविरों द्वारा तत्त्वचर्चा भगवान् महावीर राजगृह के गुणशिलक उद्यान में विराजमान थे।' उस समय अनेक पापित्य स्थविर भगवान के समवसरण में आये। वे कुछ दूर खड़े रहे और भगवान से लोक के सम्बन्ध में अनेक जटिल प्रश्न किये । उन प्रश्नों का भगवान ने बड़ी सूक्ष्मता व सरलता के साथ समाधान किया। समाधान पाकर श्रमणों को विश्वास हो गया कि महावीर भगवान् पाव के समान ही सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं । तब उन्होंने विनयपूर्वक वन्दना की और बोले-"भंते ! हम आपके पास चातुर्याम धर्म के स्थान पर पंचमहावतात्मक सप्रतिक्रमण धर्म स्वीकार करना चाहते हैं।" महावीर बोले-"श्रमणो ! तुम सुखपूर्वक ऐसा कर सकते हो।" प्रभु की अनुमति पाकर सभी श्रमण महावीर के धर्मसंघ में सम्मिलित हो गए। संयमफल-विषयक पर्चा राजगृह के निकट ही तुगिया नगरी थी। यहां पार्श्वनाथ-परम्परा के अनेक तत्वज्ञ श्रावक रहते थे। एक बार कुछ पापित्य स्थविर पांच सौ अनगारों के साथ तुगिया के पुष्यवतीक उद्यान में आये । श्रमणोपासकों ने स्थविरों का उपदेश सुना। तदनन्तर विचार-चर्चा करते हुए उन्होंने प्रश्न किया-"भगवन् ! संयम का फल क्या है और तप का फल क्या है?" . "संयम से कर्मों का आगमन (बाव) रुकता है, और तप से पूर्वबद्ध कर्मों की निचरा होती है।" स्थविरों ने कहा । १ दीक्षा का बाईसा वर्ष । वि० पू० ४६-४६० । २.भगवती सूत्र-शतक ५ उद्देशक
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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