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१९६ | तीर्थंकर महावीर करने का संदेश देते थे। तथापि वे शुद्ध व्यवहारवादी भी थे । एकांत आग्रह से तो सर्वथा मुक्त थे। सत्य के नाम पर परम्परा का उच्छेद व अनादर भी उन्हें इष्ट नहीं था और परम्परा के नाम पर असत्य का आग्रह तो कभी भी नहीं। इस कारण अपने तीर्थकर-जीवन में वे पूर्ववर्ती तीर्थकर पार्श्वनाथ-परम्परा के साथ कभी टकराये । नहीं, और न कभी उसे मिलाने का आग्रह ही किया। किन्तु प्रज्ञावाद की तुला पर पापर्वापत्य श्रमणों के साथ समन्वय-मार्ग की चर्चा की। उनकी समन्वयशील सत्योन्मुखी वाणी से आकृष्ट हो, पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमण धीरे-धीरे उनके धर्म-संघ में सम्मिलित हो गए। पार्व-परम्परा का सम्मिलन भगवान महावीर की समन्वयशीलता का एक ऐतिहासिक उदाहरण है।
पहले बताया जा चुका है कि भगवान् महावीर के माता-पिता पुरुषादानीय पाश्र्वनाथ के श्रमणोपासक थे। उनके मामा चेटक भी पार्श्वनाथ परम्परा के प्रमुख श्रावक थे। इसलिए पाश्व-परम्परा के धार्मिक संस्कार उनके पारिवारिक जीवन में घुले-मिले थे। अतः यह सहज ही माना जा सकता है कि उस प्राचीन निर्गन्य परंपरा के प्रति उनमें आदर व सम्मान की भावना तो बनी ही है।
महावीर स्वयंबुद्ध थे, इसलिये जब उन्होंने साधना-पथ पर चरण बढ़ाया तो किसी गुरु का सहारा लेने की अपेक्षा नहीं हुई। किन्तु चूकि जिस ध्येय की ओर वे बढ़ रहे थे, वही ध्येय पार्श्वनाथ का भी था तथा जिस धर्म-क्रान्ति का स्वर भगवान् पार्श्वनाथ ने मुखरित किया था, वही महावीर का इष्ट था। इसलिए दोनों में साध्य की और साधनों की प्राय: समानता थी। उस परम्परा के अवशेष रूप में अनेक श्रमण अंग-मगध आदि क्षेत्रों में विचरण कर रहे थे और यदा-कदा भगवान महावीर के संपर्क में भी वे आते रहे।
साधना-काल के चौथे वर्ष में (वि० पू० ५०६) में अंग के कुमारासनिवेश में मुनिचन्द्र स्थविर के साथ गौशालक की भेंट हुई, वह उनसे तकरार करके गाया तब भगवान महावीर ने उसे सावधान किया था-"वे पापित्य अनगार हैं। उनका बाचार यथार्थ है, तुम उनकी अवहेलना मत करो।"
___ इसी प्रकार छठे वर्ष (वि० पू० ५०७) में भी तंबायसभिवेश (मगध) में भी गौशालक ने पाश्वपित्य अनगार नंदीषेण के साथ झड़प कर ली । उक्त प्रसंगों पर भगवार ने उसे प्राचीन नियन्य-परम्परा की यथार्थता बताकर उसके प्रति यादर प्रकट किया।
उस समय भगवान् महावीर मौन-साधना में थे, इस कारण किसी परम्परा के