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________________ कल्याण-यात्रा | १९१ और आगे भी उसे देव गति में जाना है। कालीकरिक के दोनों भव दुःखमय है। अतः न जीना इष्ट है न मरना !" श्रेणिक के हृदय पर जैसे बजाधात हो गया। अपने नरक-गमन की बात सुनकर वह स्तब्ध रह गया। "भंते । क्या आपकी उपासना का यही फल मिलता है ?" धैर्य का बांध तोड़ते हुये श्रेणिक के खेदविन उद्गार निकले। "राजन् ! ऐसा नहीं है । मेरे सम्पर्क में आने से पूर्व तुमने करतापूर्वक अनेक प्राणियों की हिंसा की थी। उस कारण से तुमने नरक-आयुष्य बांध लिया । मेरी उपासना (सत्य की साधना) का फल तो यह है कि नरक से मुक्त होकर आगामी चौबीसी में तुम मुझ जैसे ही पद्मनाभ नामक प्रथम तीर्थकर बनोगे।"' श्रेणिक का विषाद हर्ष में बदल गया। तीयकर पद की अपार गरिमा और चरम श्रेष्टता के समक्ष उसे नरक की यातना तो तुच्छ एवं क्षणिक-सी प्रतीत हुई। फिर भी उसने नरक गमन को टालने की युक्ति प्रभु से पूछो । प्रभु ने कहा"अगर तुम्हारी दासी कपिला ब्राह्मणी श्रमणों को दान दे दे, अथवा कालशौकरिक जीव-वध छोड़ दे तो तुम्हारी नरक गति टल सकती है।" श्रेणिक ने कपिला से जबरदस्ती दान दिलवाया। देते-देते वह बोल पड़ी-यह दान में नहीं, श्रेणिक, का चाटू ही दे रहा है।" कालशौकरिक को जीववध नहीं करने के लिए कुए में उतारा लेकिन वहीं पर ५०० कल्पित भैसे बनाकर उनका वध करता रहा । इस प्रकार दोनों ही युक्तियां असफल हुई। श्रेणिक ने भगवान् से अन्य युक्ति पूछी। अन्त में भगवान् ने कहा-यदि पूणिया श्रावक की एक सामायिक खरीद सको तो तुम्हारी नरक टल सकती है। प्रयत्न करने पर वह योजना भी व्यर्थ गई। अन्त में भगवान ने स्पष्ट कहा-"न तुम्हारा नरकगमन टल सकता है और न कोई युक्ति चल सकती है।" - इस घटना के बाद श्रोणिक का मन विषयों से विरक्त प्रायः रहने लगा। वह सूक्ष्म आसक्ति के कारण स्वयं संसार त्याग तो नहीं कर सका किन्तु त्याग की प्रेरणा देने के लिये उसने राजगृह में उद्घोषणा करवाई-"कोई भी व्यक्ति भगवान महावीर के पास दीक्षा ग्रहण करे तो मैं उसे रोकगा नहीं, तथा उसके पीछे पालन-पोषण की कोई भी पारिवारिक चिन्ता होगी तो उसकी व्यवस्था राज्य की ओर से की जायेगी।" १ पपनाम तीर्थंकर का वर्णन स्थानांग सूत्र, स्थान ६ उ. ३ में देखना चाहिए। २ पूणिया भावक का वर्णन पृष्ठ १८८ पर किया जा चुका है। ३ विषष्टि शनाका० पर्व
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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