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________________ १६० | तीर्थकर महावीर बादि) एवं रानियों को भगवान् महावीर के धर्मसंघ में प्रवजित होने की अनुमति देता है, और उनके दीमा समारोह बड़ी धूम-धाम से कराता है। श्रेणिक की उत्कट भक्ति एवं श्रद्धा के कारण भगवान् महावीर बार-बार राजगृह में पधारते रहे और शीघ्र-शीघ्र चातुर्मास भी करते रहे। नरक गमन और तीर्थकर पद एक बार भगवान् महावीर राजगृह पधारे।' श्रेणिक, अभय कुमार एवं अन्य सहस्रों नागरिक भगवान् के समवसरण में बैठे थे। तभी एक कुष्टी, जिसके शरीर से रक्त, मवाद मर रहा था, मक्खियां भिन-भिना रही थीं, महाराज श्रेणिक के पास आ कर बैठ गया। भगवान की धर्म-सभा में तो सब को समान अधिकार पा। कोई किसी को रोक नहीं सकता था। कुष्टी ने कुछ देर बाद भगवान् महावीर की तर्फ देख करके कहा-"मर जाओ!" श्रेणिक कुष्टी का यह अशिष्ट व अभद्र व्यवहार देखकर रोष में भर रहा था। तभी कुष्टी ने श्रेणिक को संकेत करके कहा'पीते रहो। फिर अभय कुमार की ओर मुंह कर कुष्टी बोला-"चाहे जी, चाहे मर!" और अंत में कर हिंसक काल शौकरिक की तर्फ देख कर कुष्टी ने कहा"मत मर ! मत जी!" . कुष्टी के इस असम्बद प्रलाप पर श्रेणिक नब्ध हो उठा। सैनिकों ने उसे पकड़ना चाहा तभी वह देखते-देखते अंतरिक्ष में विलीन हो गया। श्रेणिक के आश्चर्य का वेग बढ़ता गया। उसने सर्वज्ञ महावीर से पूछा"भंते ! वह कुष्टी कौन था? और क्यों अनर्गल बकवास कर गया?" महावीर बोले-"वह देव था, और जो कुछ कहा वह एक कटु सत्य का संकेत था। वह सत्य तुम्हें अप्रिय भी लगेगा।" "भते ! मैं उसके कथन का रहस्य जानना चाहता हूं। आपकी पर्युपासना से इतनी तितिक्षा तो सीख पाया हूं कि अप्रिय सत्य को भी बर्दाश्त कर सकू।" महावीर ने रहस्य का पर्दा उठाते हुये कहा- "मुझे मरने के लिए कहा, इसका कारण है, में यहां देह-बन्धन में हूं; बागे मुक्ति है। शाश्वत सुख है।" तुम्हें जीने के लिये कहा, क्योंकि तुम्हारा अगला भव 'नरक' का है। अभयकुमार अपने धर्माचरण एवं व्रत-नियमों की आराधना के कारण यहां भी श्रेष्ठ जीवन जी रहा है १वीक्षा का १८वा वर्ष । वि.पू. ४६५
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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