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________________ १४२ | वीर्षकर महावीर से अर्थात् रलाय स्वीकार करके दीक्षा की दृष्टि से वो ज्येष्ठ होता, रलाधिक होता, (जो गुणों में श्रेष्ठ होता) वही ज्येष्ठ (बड़ा) कहलाता, उसे बाद के दीक्षित साधु बन्दना करते । चाहे वे पूर्व दीक्षित मुनि से वायु में बड़े हों, अथवा किसी भी बड़े पराने से व उच्चपद से बाये हों। वहां पर गुण (रत्नत्रय) की ज्येष्ठता का माधार था, न कि वय, अध्ययन, अधिकार बादि । इस व्यवस्था का बहुत बड़ा आध्यात्मिक लाभ यह था कि दीमित होनेवाला व्यक्ति पूर्व-जीवन के समस्त मदों (अहंकारों) एवं पूर्व संस्कारों से मुक्त होकर एक सरल और सात्विकभावना के साथ दिव्यसाधक-जीवन में प्रवेश करता । श्रमण भगवान महावीर के श्रमण संघ में दीक्षित होने वाले व्यक्ति राजा, राजकुमार, ब्राह्मण, वणिक एवं शूद्र-चांगल आदि सभी वर्गों के होते थे। किन्तु संघ में सब के साथ समता का व्यवहार किया जाता और रत्नत्रय की ज्येष्ठता को महत्व दिया जाता। ऐसे अनेक उदाहरण मागे प्रस्तुत होंगे-जब भगवान की पूर्व माता देवानन्दा दीक्षित होती हैं, तो उसे भी आर्या चन्दना के नेतृत्व में सोंपा जाता है। महारानी मृगावती (चन्दना की मौसी) भी आर्या चन्दनबाला के नेतृत्व में आई । और इधर भगवान के दामाद राजकुमार जमालि तथा अन्य अनेक प्रमुख राजा भी गणधरों के नेतृत्व में चलते हैं । सम्भवतः कभी ऐसा प्रश्न भी भगवान के समक्ष आया होगा कि हम पूर्व-जीवन में इतने उच्च-पद पर थे, अमुक कुल आदि के थे, तदनुसार यहाँ भी हमारा वैसा ही उच्च या योग्य स्थान रहना चाहिये । भगवान ने इसका इतना सुन्दर समाधान दिया कि जाति-मद के पूर्वसंस्कार सहज ही घुल गये । भगवान ने कहा-"साप के शरीर पर केंचुली माती है तो वह अंधा हो जाता है, जब वह केंचुली से मुक्त हो जाता है तो देखने लगता है। उसी प्रकार मनुष्य के मन पर जब गोत्र आदि की केंचुली ढक जाती है, तो वह मद में अंधा हो जाता है, इस के (गोत्र, कुल जाति भादि का अहंकार-पूर्ण-संस्कार) छूटने पर ही वह अपने को, अपने स्वरूप को देख पाता है।" इसके आगे भी प्रभु ने कहा-"बाह्मण, क्षत्रिय, उग्रपुत्र, लिच्छवि बादि कोई भी हो, जिसने घरबार का त्याग कर मुनिजीवन स्वीकार किया है, उसे पूर्व संस्कारों का गर्व क्यों करना चाहिये ? आखिर साधु बन कर जो दूसरों का दिया हुवा (मांगा हुआ) भोजन करता है, वह चाहे कोई हो, उसका अहंकार करना सर्वथा अयोग्य है।" इस प्रकार भगवान महावीर की संघ-व्यवस्था में सबसे मख्य बात थीविनय । सरलता, समानता और पूर्व-संस्कारों की स्मृति से मुक्त होकर प्रत्येक १ तयसंप बहाई से रयं २ मे पनाइए पररातभोई -सूत्रहतांग १।२।२।१ -सूकतांग-१।१३।१०
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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