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________________ श्रमण गुरु की माता एवं अनुशासन में चलता तथा स्वेच्छा से अपने नियमों का पालन करता। तीन श्रेणी साधना की दृष्टि से भगवान के धर्मसंघ में तीन प्रकार के साधक थे। १ प्रत्येकबुद्ध-जो प्रारम्भ में ही संघीय मर्यादा से मुक्त रहकर साधना करते रहो, २ स्थविरकल्पी-जो संघीय मर्यादा एवं अनुशासन में रह कर साधना करते। ३ जिनकल्पी-जो विशिष्ट साधना पद्धति अपना कर संघीय मर्यादा से मुक्त होकर तपश्चरण आदि करते। प्रत्येकबुद्ध एवं जिनकल्पी स्वतन्त्र विहारी होते थे इसलिये उनके लिये किसी अनुशासक की अपेक्षा ही नहीं थी। स्थविरकल्पी संघ में रह कर एक पद्धति के अनुसार. एक व्यवस्था के अनुसार जीवनयापन करते थे अत: उनके लिये सात विभिन्न पदों की व्यवस्था भी थी १ आचार्य (माचार की विधि सिखाने वाले) .. २ उपाध्याय (श्रुत का अभ्यास कराने वाले) ३ स्थविर (वय, दीक्षा एवं श्रुत से अधिक अनुभवी) ४ प्रवर्तक (माझा अनुशासन की प्रवृत्ति कराने वाले) ६ गणी (गण की व्यवस्था का संचालन करने वाले) २ गणधर (गण का सम्पूर्ण उत्तरदायी) ७ गणावच्छेदक (संघ की संग्रह-निग्रह आदि व्यवस्था के विशेषज्ञ) ये संघीय जीवन में शिक्षा, साधना, आचार-मर्यादा, सेवा, धर्म-प्रचार, विहार आदि विभिन्न व्यवस्थाओं को संभालते थे । आश्चर्य की बात तो यह है कि इतनी सुन्दर और विशाल संघीय व्यवस्था का मूल बाधार अनुशासन और वह भी स्वप्रेरित मात्मानुशासन अर्थात् स्व-अनुशासन था। संघ की इस प्रकार की समाचारी में एक समाचारी है-इच्छाकार । इसे हम इच्छायोग कह सकते हैं। कोई श्रमण से कुछ सेवा लेते या आदेश देते तो उसके पूर्व कहते- "आपकी इच्छा हो तो यह कार्य करें।" सेवा करने वाला, या मादेश का पालन करने वाला श्रमण भी यह नहीं
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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