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________________ १५८ | सीकर महावीर ___ "हां, वायुभूति ! हजारों-हजार प्रन्यों का अवलोकन कर और पारायण करके भी तुम इस संशय में डूबे हो कि जीव और शरीर एक है या भिन्न ?" दिग्भ्रान्त से वायुभूति महावीर की और देखने लगे-'मेरे गुप्त सन्देह को महावीर ने कैसे जाना ? जबकि मैंने कभी अपने अग्रजों से भी इसकी चर्चा नहीं की-?' "वायुभूति ! मैं साक्षात अनुभव करता हूं, जीव और शरीर दो भिन्न तत्व है, एक चेतन, एक अचेतन । इसकी सिद्धि शास्त्रों से भी हो सकती है, और मात्मानुभूति से भी।' वायुभति की प्यास प्रबल हो गई। भगवान महावीर ने गभीर विवेचन कर वायुभूति की संशय-प्रन्थि का छेदन किया। वे संशयमुक्त हो गये, शिष्यों के साथ भगवान महावीर का शिष्यत्व स्वीकार करने को आतुर हो गये। भगवान महावीर ने वायुभूति को भी प्रव्रज्या प्रदान की। अब तो यगशाला में एक भयंकर उदासी, मनहूस खामोशी छा गई। उसके मायोजक अन्य विद्वानों को महावीर के पास जाने से भी रोकने लगे क्योंकि वहाँ जाकर कोई लौटकर नहीं माया । माता भी कैसे ? अंधकार में भटकता पतंगा दीपक की लो को देखकर क्या कभी पुनः अंधकार में लौट सकता है ? जनम-जनम की प्यास से संतप्त क्षीरसागर के किनारे जाकर क्या कोई बिना प्यास बुझाये वापस लौट सकता है ? पर यह सत्य तो जानेवालों को ही अनुभव हो रहा था, दूर किनारे रहने वालों को नहीं । व्यक्त, सुधर्मा आदि विद्वानों में भी वह प्यास प्रबल हो उठी। उन्हें अपनी विद्वत्ता का, अपने ब्राह्मणत्व का अहंकार जरूर था, पर साथ ही उनकी सत्यप्रज्ञा का द्वार, जिज्ञासा की खिड़की भी खुली थी। आतुर हो उठे, यह सब देखने जानने को कि, यह महावीर कोई प्रवंचक है, छलिया है या कोई सत्य का साक्षातद्रष्टा । क्रमशः व्यक्त, सुषर्मा आदि भी अपने-अपने शिष्य परिवार के साथ भगवान महावीर की धर्म-सभा में आते गये, अपने संदेहों से मुक्त होकर शिष्य बनते गये । संक्षेप में उनकी संशयास्त धारणायें इस प्रकार हैं: व्यक्त-ब्रह्म ही सत्य है, पंचभूत आदि अन्य तत्व यथार्थ नहीं हैं। सुधर्मा-प्राणी मृत्यु के पश्चात् पुनः अपनी योनि में ही उत्पन्न होता है। मंरित-बंध और मोक्ष नहीं है।
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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