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________________ कल्याण-यात्रा | १३७ शिथिल बना दिया। उनकी मान उमियों ने अग्निभूति की वित्ता की जांच को मन्द कर दिया । जैसे ही वे महावीर के समक्ष पहुंचे. प्रभु ने मधुर स्वर में सम्बोधित किया-"अग्निभूति गौतम ! तुम भी आ गये, अपने अग्रज के मार्ग पर !" "मैं अपने अग्रज को आपके माया-जाल से मुक्त कराने आया हूं।" "अग्निमति ! तुम स्वयं सन्देह के मायाजाल में फंसे हो । जो स्वयं संशयप्रस्त हैं, वह दूसरों को संशय से क्या मुक्त कर सकेगा ? मुक्त ही दूसरों को मुक्त करा पाता है, बोलो ! तुम स्वयं कर्म-फल के सन्देह से ग्रस्त हो ना ?" । चकित-भ्रमित से अग्निभूति महावीर की शिष्य परिषद् में बैठे अपने अग्रज इन्द्रभूति की ओर देख रहे थे, कि वे कुछ बोलें ? महावीर ने आज उस ग्रन्थि को पकड़ लिया, जिस की भनक आज तक किसी को नहीं हुई। वे मन-ही-मन महावीर की सर्वशता पर आस्था करने लगे। महावीर ने तर्क और अनुभूति के द्वारा अग्निभूति के सन्देह को दूर किया और वे भी अपने ५०० शिष्यों के साथ भगवान महावीर के शिष्य बन गये। अब तो सोमिलार्य की यज्ञशाला में तहलका मच गया। दो बड़े-बड़े सेनापति आत्मसमर्पण कर चुके, अब इस बिखरती सेना का क्या होगा? ये दिग्गज हस्ती भी महावीर के समक्ष जाकर मक्खी बन गये तो अब औरों की क्या बिसात ! फिर भी इन्द्रभूति के सबसे छोटे भाई वायुभूति ने साहस दिखाया, वे बोले-"लगता है महावीर ने उन पर कुछ मोहन कर डाला है । मैं सावधान होकर चलूंगा और अपने दोनों अग्रजों को मुक्त करा कर लाऊंगा।" वायुभूति बड़ी गर्जना से चले । पर, जैसे-जैसे वे भगवान के निकट आते गये, उनके भीतर के संकल्पों का ज्वार शान्त होता चला गया । एक विचित्र मनोवैज्ञानिक परिवर्तन उनमें हो रहा था, उनका प्रथम चरण अहंकार से दीप्त था, पर यह आखिरी चरण विनयनत होकर धरा पर टिकने लगा। महावीर ने पूर्व की भांति ही वायुभूति के अन्त.करण के सबसे गुप्त एवं मर्मस्थल को शब्दों के कोमल-स्पर्श से छुआ-'वायुभति ! तुम भी अग्रज के पथ पर आ गये ? अग्रज की खोज में, अग्रज को मुक्त कराने-? पर जानते हो, तुम्हारे अग्रज संशय से मुक्त हो गये, तुम उन्हें क्या मुक्त करोगे ? तुम स्वयं संशयग्रस्त हो, अनः जब स्वयं संशय से मुक्ति पाओगे तभी दूसरों को मुक्त कराने में समर्थ बनोगे-?" वायुभूति असमंजस में पड़ गये-"महावीर यह क्या दार्शनिक पहेली बुमा गये ? में संशयग्रस्त हूं-?"
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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