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कल्याण-यात्रा १९ मौर्यपुत्र-स्वर्ग नहीं है। मकंपित-नरक नहीं है। अचलमाता-पुण्य और पाप कोई तत्व नहीं, मात्र कल्पना है। मेतार्य-पुनर्जन्म नहीं है। प्रभास-मोक्ष नहीं है।
व्यक्त, सुधर्मा आदि समस्त विद्वानों की शंकाओं का भगवान महावीर ने बड़ा ही युक्तिपूर्ण तथा अनुभूतिगम्य विश्लेषण किया, जिससे प्रभावित हो, ग्यारह ही विद्वान भगवान महावीर के शिष्य बन गये । और उनके साथ ही ४४०० छात्र भी।
गणधरों की इस विस्तृत दार्शनिक चर्चा से यह पता चलता है कि उस युग में कितने विविध प्रकार की धारणाएं परस्पर टकरा रही थीं। साथ ही एक यथार्थता भी स्वीकार करनी होगी कि जहाँ विद्वत्ता गहरी होती है, वहाँ संशय हो सकता है, पर आग्रह नहीं। बाग्रह से ज्ञान आवृत हो जाता है, सत्य का द्वार बन्द हो जाता है । गणधरों में जिस प्रकार की सत्योन्मुखी जिज्ञासा थी, वह उनके लिए वरदान बनी, अनन्त सत्य का द्वार उद्घाटित करने में समर्थ हुई। भगवान महावीर की आत्मदृष्टि, सत्य की साक्षात् अनुभूति का पहला लाभ ब्राह्मण पण्डितों को मिला। इस प्रकार भगवान महावीर को ज्ञान-गंगा का प्रथम प्रवाह विश्व कल्याण के लिए प्रवाहित हुआ।
धर्म-संघ की स्थापना
मध्यम पावा की प्रथम धर्मपरिषद (समवसरण) में ही एक साप ग्यारह दिग्गज विद्वान और उनके चार हजार चार सौ शिष्य भगवान् महावीर के पास प्रवजित हो गये-यह एक अद्भुत घटना हुई होगी, इसकी चर्चाएं दूर-दूर तक फैल गई होगी। जो ब्राह्मण वर्ग, श्रमण वर्ग के साथ, उसकी यज्ञ-विरोधी, तथा स्त्री-शूद्रधर्माधिकार-समर्थक नीतियों के कारण देष की आग फैला रहा था-वह भी स्तब्ध रह गया, यह देख कर कि श्रमण महावीर ने अपने धर्म-प्रचार का सबसे पहला केन्द्रबिन्दु उसी ब्राह्मण वर्ग को बनाया है, जो आज तक श्रमणधर्म के विरुद्ध विषवमन करता रहा है। इससे यज्ञसंस्था और ब्राह्मणवाद की जड़ें हिल गई और उनके
१ गणधरों का दानिक संवाद विस्तृत रूप से गणधरयाद में देखा जा सकता है।