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________________ साधना के महापप पर | ११९ मास से बिना बन्न-जल प्राप्त किये नगर में घूम रहे हैं। आपने उनकी बबर भी नहीं ली, नगर में क्या हो रहा है, कुछ पता भी है-आपको....?" शतानीक ने भी अफसोस के साथ देवार्य के अभिग्रह का पता लगाने का आश्वासन दिया। उसने महामात्य सुगुप्त, राजपुरोहित तथा अनेक बुद्धिशाली श्रमणोपासकों एवं चतुर नागरिकों को बुलाया और देवार्य के अभिग्रह का पता लगाने का आदेश दिया। पर कोई भी उनके मनोगत वसंकल्प का पता लगाने में सफल नहीं हो सका। [३] पांच मास चौबीस दिन बीत गये, आज पच्चीसवां दिन था, श्रमण महावीर ध्यान स्थिति पूर्ण कर नगर में मिक्षार्य पर्यटन करते हुए धनावह सेठ के भवन की ओर जा रहे थे। मानो वे चन्दना की टोह में ही घूम रहे थे और आज उस बंदिनी नारी के मुक्ति दिवस की पुण्यबेला आ गई हो। चन्दना को भूमिगृह में पड़े-पड़े तीन दिन बीत गये, चौथे दिन धनावह बाहर से नगर में आया, घर को सूना देखा, चन्दना भी नहीं दिखाई दी तो इधर-उधर जाकर उसने पुकारा-"चन्दना ! चन्दना !" चन्दना भूमिगृह में बन्द थी, भूखी-प्यासी ! उसने धीमे स्वर में उत्तर दिया, "पिता जी, मैं यहां हूं।" घनावह ने भूमिगृह में बन्द चन्दना का विद् प देखा तो वह फूट-फूट कर रोने लगा, "बेटी, तेरी यह दशा | मेरे जीते जी तेरा यह हाल !" चन्दना ने धीरज के साथ कहा-"पिताजी, कष्ट के समय रोने-धोने से वेदना और भी तीव्र हो जाती है, आप धीरज रखिये, आप किसी पर रोष और आक्रोश न करें, यह तो अपने ही कृत-कर्मों का फल है, आप शीघ्र मुझे भूमिगृह से बाहर निकालिये, मैं भूखी-प्यासी हूं, जरा कुछ खाने को दीजिये और मेरी बेड़ियाँ छुड़वाइये।" धनावह ने हाथ के सहारे चन्दना को घर के दरवाजे में ला बिठाया, बाने को कुछ था ही नहीं, एक सूप के कोने में बासी उड़द उबला हुआ रखा था । बनावह ने वही चन्दना के सामने रख दिया, और बोला-"बेटी ! तेरी बेड़ियां कटवाने में अभी लुहार को बुलाता हूं।"
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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