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________________ ११८ | वीर्षकर महावीर कर रही होंगी ? पर श्रमण महावीर के सिवाय किसके पास थे वे दिव्यश्रोत्र, जो उस अनाथ, असहाय मातृजाति की करुण पुकार सुनें, किसके पास थे वे दिव्यनेत्र, जो उनकी दारुण यंत्रणाओं का हृदयवेधक दृश्य देख सकें, और किसके पास था अमित साहस व शौर्य से भरा वह करुण-मानस, जो उसकी व्यथाओं से द्रवित हो सके ?.... कौशाम्बी में भिक्षार्थ पर्यटन करते हुए श्रमण महावीर को चार महीने बीत गये । उनका संकल्प पूर्ण नहीं हुमा, एक दिन वे कौशाम्बी के महामात्य सुगुप्त के घर भिक्षार्थ गये । महामात्य की पत्नी नन्दा प्रभु की उपासिका थी, उसने शुद्ध भिक्षा का निमंत्रण दिया, किंतु प्रभु तो अभिग्रहधारी थे, अभिग्रह पूर्ण हुए बिना कैसे आहार ग्रहण करें? बिना कुछ लिये ही लौट आये। नन्दा के हृदय को गहरी चोट पहुंची, अपने भाग्य को कोसती हुई वह फूट-फूट कर रोने लगी। तब दासियों ने कहा"स्वामिनी ! आप इतना पश्चात्ताप क्यों करती हैं ? देवार्य तो यहाँ (नगर में) प्रतिदिन आते हैं और बिना कुछ लिये ही लौट जाते हैं, आज लगभग चार मास से तो हम देख रही है........" दासियों की बात सुनकर नन्दा स्तब्ध हो गई। उसकी आत्मा भीतर-हीभीतर तड़प उठी-"क्या देवार्य चार मास से यों ही लौट जाते हैं ? अवश्य ही कोई दुर्गम-दु:शक्य अभिग्रह ले रखा होगा, जिसके पूर्ण हुए बिना वे आहार ग्रहण नहीं करते ।" नन्दा गहरी चिन्ता में डूबी हुई बैठी थी कि तभी महामात्य सुगुप्त भवन में प्रविष्ट हुए। नन्दा ने अपनी मनोव्यथा बताते हुए कहा-"आपकी चतुरता और बुद्धिमानी किस काम की? जो आप इतना भी पता नहीं लगा सकते कि देवार्य श्रमण महावीर चार मास से आहार के लिये नगर में भिक्षार्थ आते हैं और खाली लौट जाते हैं ? उनके अभिग्रह का पता आप न लगा पाये तो आपको यह महामात्यता व्यर्थ है........." नन्दा की व्यथामरी वाणी सुनकर सुगुप्त ने आश्वासन दिया-"मैं हर संभव प्रयत्न कर देवार्य के अभिग्रह का पता लगाऊंगा।" देवार्य के सम्बन्ध की यह चर्चा वहां खड़ी एक विजया नाम की दासी ने सुनी, जो मृगावती के अन्तःपुर में महिला-प्रतिहारी थी। उसने जाकर मृगावती से यह घटना कह सुनाई । मृगावती यह सुनते ही आकुल हो उठी और उसी समय महाराज शतानीक को बुलाकर उलाहना दिया- "इस विशाल राज्य और आप जैसे महान राणा की महारानी होने में मुझे आज कोई सार्थकता नहीं लगती। मैं आज अपने को इस राज्य की रानी होने में हीनता एवं दीनता अनुभव करती हूं, जबकि देवार्य चार
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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