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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७८ तत्त्वार्थवृत्ति-प्रस्तावना अनेकान्तदर्शनका सांस्कृतिक आधारभारतीय विचार परम्परामें स्पष्टतः दो धाराएँ हैं। एक धारा वेदको प्रमाण मानने वाले वैदिक दर्शनोंकी है और दूसरी वेदको प्रमाण न मानकर पुरुषानुभव या पुरुषसाक्षात्कारको प्रमाण माननेवाले श्रमण सन्तोंकी। यद्यपि चार्वाक दर्शन भी वेदको प्रमाण नहीं मानता किन्तु उसने आत्माका अस्तित्व जन्मसे मरण पर्यन्त ही स्वीकार किया है। उसने परलोक, पुण्य, पाप, और मोक्ष जैसे आत्मप्रतिष्ठित तत्त्वों को तथा आत्मसंशोधक चारित्र आदिकी उपयोगिताको स्वीकृत नहीं किया है। अत: अवैदिक होकर भी वह श्रमणधारामें सम्मिलित नहीं किया जा सकता। श्रमणधारा वैदिक परम्पराको न मानकर भी आत्मा, जड़भिन्न ज्ञान सन्तान, पुण्य-पाप, परलोक निर्वाण आदिमें विश्वास रखती है, अतः पाणिनिकी परिभाषा के अनुसार आस्तिक है। वेदको या ईश्वरको जगत्कर्ता न माननेके कारण श्रमणधाराको नास्तिक कहना उचित नहीं है, क्योंकि अपनी अमुक परम्पराको न माननेके कारण यदि श्रमण नास्तिक है तो श्रमणपरम्परा को न माननेके कारण वैदिक भी मिथ्यादृष्टि आदि विशेषणों से पुकारे गये हैं। श्रमणधाराका सारा तत्त्वज्ञान या दर्शनविस्तार जीवन-शोधन या चारित्र्य वृद्धिके लिए हुआ था। वैदिक परम्परामें तत्त्वज्ञानको मुक्तिका साधन माना है, जब कि श्रमणधारामें चारित्र को। वैदिकपरम्परा वैराग्य आदिसे ज्ञानको पुष्ट करती है, और विचारशुद्धि करके मोक्ष मान लेती है जब कि श्रमण परम्परा कहती है कि उस ज्ञान या विचारका कोई मूल्य नहीं जो जीबनमें न उतरे । जिसकी सुवाससे जीवनशोधन न हो वह ज्ञान या विचार मस्तिष्कके व्यायामसे अधिक कुछ भी महत्त्व नहीं रखते। जैन परम्परामें तत्त्वार्थसूत्रका आद्यसूत्र है--"सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" (तत्त्वार्थसूत्र १११) अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रकी आत्मपरिणति मोक्षका मार्ग है। यहाँ मोक्षका साक्षात् कारण चारित्र है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान तो उस चारित्रके परिपोषक हैं। बौद्ध परम्पराका अष्टांग मार्ग भी चारित्रका ही विस्तार है। तात्पर्य यह कि श्रमणधारामें ज्ञानकी अपेक्षा चारित्रका ही अन्तिम महत्त्व रहा है और प्रत्येक विचार और ज्ञानका उपयोग चारित्र अर्थात् आत्मशोधन या जीवनमें सामञ्जस्य स्थापित करनेके लिए किया गया है । श्रमण सन्तोंने तप और साधनाके द्वारा वीतरागता प्राप्त की और उसी परमवीतरागता, समता या अहिंसा की उत्कृष्ट ज्योतिको विश्वमें प्रचारित करने के लिए विश्वतत्त्वोंका साक्षात्कार किया। इनका साध्य विचार नहीं आचार था, ज्ञान नहीं चारित्र्य था, वाग्विलास या शास्त्रार्थ नहीं, जीवनशुद्धि और संवाद था। अहिंसाका अन्तिम अर्थ है-जीवमात्रमें (चाहे वह स्थावर हो या जंगम, पशु हो या मनुष्य, ब्राह्मण हो या क्षत्रिय, वैश्य हो या शूद्र, गोरा हो या काला, एतद्देशीय हो या विदेशी)देश, काल, शरीराकार, वर्ण, जाति, रंग आदिके अवरणोंसे परे होकर समत्व दर्शन । प्रत्येक जीव स्वरूपसे चैतन्य शक्तिका अखण्ड शाश्वत आधार है। वह कर्म या वासनाओंके कारण वृक्ष, कीड़ा-मकोड़ा, पशु और मनुष्य आदि शरीरोंको धारण करता है, पर अखण्ड चैतन्यका एक भी अंश उसका नष्ट नहीं होता। वह वासना या रागद्वेषादिके द्वारा विकृत अवश्य हो जाता है। मनुष्य अपने देश काल आदि निमित्तोंसे गोरे या काले किसी भी शरीरको धारण किए हो, अपनी वृत्ति या कर्मके अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र किसी भी श्रेणीमें उसकी गणना व्यवहारतः की जाती हो, किसी भी देशम उत्पन्न हुआ हो, किसी भी सन्तका उपासक हो, वह इन व्यावहारिक निमित्तोंसे ऊँच या नीच नहीं हो सकता। किसी वर्णविशेषमें उत्पन्न होने के कारण ही बह धर्मका ठेकेदार नहीं बन सकता। मानवमात्र के मूलत: समान अधिकार हैं, इतना ही नहीं किन्तु पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, वृक्ष आदि प्राणियोंके भी। अमुक प्रकार की आजीविका या व्यापारके कारण कोई भी मनुष्य किसी मानवाधिकारसे वंचित नहीं हो सकता। यह मानवसमत्वभावना, प्राणिमात्रमें रामता और उत्कृष्ट सत्त्वमंत्री अहिंसाके ही विकसित रूप हैं। श्रमणसन्तोंने यही कहा है कि-एक मनुष्य किसी भूखण्डपर या अन्य भौतिक साधनोंपर अधिकार कर लेनेके कारण जगत्में महान् बनकर दूसरोंके निर्दलनका जन्मसिद्ध अधिकारी नहीं हो सकता। किसी वर्णविशेषमें उत्पन्न होने के कारण दूसरोंका शासक या धर्म का ठेकेदार नहीं हो सकता। भौतिक साधनों For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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