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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सप्तभंगी जब अस्ति और नास्ति की तरह अवक्तव्य भी वस्तुका धर्म है तब जैसे अस्ति और नास्तिको मिलाकर चौथा भंग बन जाता है वैसे ही अवक्तव्यके साथ भी अस्ति, नास्ति और अस्तिनास्तिकोमिलाकर पाँचवें छठवें और सातवें भंगकी सृष्टि हो जाती है। ___ इस तरह गणितके सिद्धान्तके अनुसार तीन मूल वस्तुओंके अधिकसे अधिक अपुनरुक्त सात ही भंग हो सकते हैं। तात्पर्य यह है कि वस्तुके प्रत्येक धर्मको लेकर सात प्रकारकी जिज्ञासा हो सकती है, सात प्रकारके प्रश्न हो सकते हैं अतः उनके उत्तर भी सात प्रकारके ही होते हैं। दर्शनदिग्दर्शनमें श्री राहुलजी ने पाँचवें छठवें और सातवें भंगको जिस भ्रष्ट तरीकेसे तोड़ामरोड़ा है वह उनकी अपनी निरी कल्पना और अतिसाहस है। जब वे दर्शनोंको व्यापक नई और वैज्ञानिक दृष्टिसे देखना चाहते हैं तो किसी भी दर्शनकी समीक्षा उसके स्वरूपको ठीक समझ कर ही करनी चाहिए। वे अवक्तव्य नामक धर्मको, जो कि सत्के साथ स्वतन्त्रभावसे द्विसंयोगी हुआ है, तोड़कर अ-वक्तव्य करके संजयके 'नहीं' के साथ मेल बैठा देते हैं और संजय के घोर अनिश्चयवादको ही अनेकान्तवाद कह देते हैं ! किमाश्चर्यमतः परम् श्री सम्पूर्णानन्दजी 'जैनधर्म' पुस्तककी प्रस्तावना (पृ० ३) में अनेकान्तवादकी ग्राह्यता स्वीकार · करके भी सप्तभंगी न्यायको बालकी खाल निकालने के समान आवश्यकतासे अधिक बारीकीमें जाना समझते हैं। पर सप्तभंगीको आजसे ढाई हजार बर्ष पहिलेके वातावरणमें देखनेपर वे स्वयं उसे समयकी माँग कहे बिना नहीं रह सकते। अढ़ाई हजार वर्ष पहिले आबाल गोपाल प्रत्येक प्रश्नको सहज तरीकेसे 'सत् असत् उभय और अनुभय' इन चार कोटियोंमें गूथ कर ही उपस्थित करते थे और उस समयके भारतीय आचार्य उत्तर भी चतुष्कोटिका ही, हाँ या ना में देत थे, तब तीथंकर महावीरने मल तीन भंगोंके गणितके नियमानुसार अधिकसे अधिक सात प्रश्न बनाकर उनका समाधान सप्तभंगी द्वारा किया जो निश्चितरूपसे वस्तुकी सीमाके भीतर ही रहा है । सात भंग बनाने का उद्देश्य यह है किवस्तुमें अधिकसे अधिक सात ही प्रश्न हो सकते हैं । अवक्तव्य वस्तुका मूलरूप है, सत् और असत् ये दो धर्म इस तरह मूल धर्म तीन हैं। इनके अधिकसे अधिक मिला जुड़ाकर सात ही प्रश्न हो सकते हैं । इन सर संभव प्रश्नोंका समाधान करना ही सप्तभंगी न्यायका प्रयोजन है । यह तो जैसे को तैसा उत्तर है अर्थात् म कल्पना करके सात प्रश्नों की संभावना करते हो तो उसी तरह उत्तर भी वास्तविक तीन धर्मोको मिलाकर सात हो सकते हैं। इतना ध्यानमें रहना चाहिए कि एक एक धर्मको लेकर ऐसे अनन्त सात भंग वस्तुमें बन सकते हैं। अनेकान्तवादने जगत्के वास्तविक अनेक सत्का अपलाप नहीं किया और न बह केवल कल्पनाके क्षेत्र में विचरा है। मेरा उन दार्शनिकोंसे निवेदन है कि भारतीय परम्परामें जो सत्यकी धारा है उसे 'दर्शनग्रन्थ' लिखते समय भी कायम रखें और समीक्षाका स्तम्भ तो बहत सावधानी और उत्तरदायित्वके साथ लिखनेकी कृपा करें जिससे दर्शन केवल विवाद और भ्रान्त परम्पराओंका अजायबघर न बने, वह जीवन में संवाद लावे और दर्शनप्रणेताओंको समुचित न्याय दे सके। इस तरह जैनदर्शनने दर्शन शब्दकी काल्पनिक भूमिकासे निकलकर वस्तु सीमापर खड़े होकर जगत्में वस्तुस्थितिके आधारसे संवाद समीकर ण और यथार्थ तत्त्वज्ञानकी दृष्टि दी। जिसकी उपासनासे विश्व अपने वास्तविक रूपको समझकर निरर्थक विवादसे बचकर सच्चा संवादी वन सकता है। १ जेन कथा ग्रन्थों में मह वी के बाल जीवनकी एक घटनाका वर्णन आता है कि-'संजय और विजय नामके दो साधुओंका संशय महावीरको देखते ही नष्ट हो गया था, इसलिए इनका नाम सन्मति रखा गया था : सम्भव है यह संजय-विजय संजय लठि पुत्त ही हो और इसीके संशय या अनिश्चय का नाश महावीरके सप्तभंगीन्यायसे हुआ हो। यहाँ वेल ठिपुत्त विशेषग भ्रष्ट होकर विजय नामका दूसरा साधु बन गया है। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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