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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वार्थवृत्ति प्रस्तावना धातु ? तेजोधातु सिया अज्झत्तिका सिया बाहिरा ।" अर्थात् तेजो धातु स्यात् आध्यात्मिक है, स्यात् बाह्य है। यहाँ सिया (स्यात् ) शब्दका प्रयोग तेजो धातुके निश्चित भेदोंकी सूचना देता है न कि उन भेदोंका संशय अनिश्चय या संभावना बताता है। आध्यात्मिक भेद के साथ प्रयुक्त होनेवाला स्यात् दाब्द इस बातका द्योतन करता है कि तेजो धातु मात्र आध्यात्मिक ही नहीं है किन्तु उससे व्यतिरिक्त वाह्य भी है। इसी तरह 'स्यादस्ति में अस्तिके साथ लगा हुआ 'स्यात्' शब्द सूचित करता है कि अस्तिसे भिन्न धर्म भी वस्तुमें है केवल अस्तिधर्मरूप ही वस्तु नहीं है। इस तरह ‘स्यात्' शब्द न शायदका न अनिश्चयका और न सम्भावनाका सूचक है किन्तु निर्दिष्ट धर्मके सिवाय अन्य अशेष धर्मोकी सूचना देता है जिससे श्रोता वस्तुको निर्दिष्ट धर्ममात्र रूप ही न समझ बैठे। ___ सप्तभंगो--वस्तु मूलत: अनन्तधर्मात्मक है। उसमें विभिन्न दृष्टियोंसे विभिन्न विवक्षाओंसे अनन्त धर्म है। प्रत्येक धर्मका विरोधी धर्म भी दृष्टिभेदसे वस्तुमें सम्भव है। जैसे 'घटः स्यादस्ति' में घट है अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावकी मर्यादासे। जिस प्रकार घटमें स्वचतुष्टयकी अपेक्षा अस्तित्व धर्म है उमी तरह घटव्यतिरिक्त अन्य पदार्थोका नास्तित्व भी घटमें है। यदि घटभिन्न पदार्थोंका नास्तित्व घटमें न पाया जाय तो घट और अन्य पदार्थ मिलकर एक हो जायेंगे। अतः घट स्यादस्ति और स्यान्नास्ति रूप है। इसी तरह वस्तुमें द्रव्यदष्टि से नित्यत्व और पर्यायदृष्टिसे अनित्यत्व आदि अनेकों विरोधी युगल धर्म रहते हैं। एक वस्तुमें अनन्त सप्तभंग बनते हैं। जब हम घटके अस्तित्वका विचार करते हैं तो अस्तित्वविषयक सात भंग हो सकते हैं। जैसे संजयके प्रश्नोत्तर या बुद्ध के अव्याकृत प्रश्नोत्तरमें हम चार कोटि तो निश्चित रूपसे देखते हैं ---सत् असत् उभय और अनुभय । उसी तरह गणित के हिसाबसे तीन मूल भंगोंको मिलानेपर अधिकसे अधिक सात अपुनरुक्त भंग हो सकते हैं। जैसे घड़े के अस्तित्वका विचार प्रस्तुत है तो पहिला अस्तित्व, धर्म दूसरा तद्विरोधी नास्तित्व धर्म और तीसरा धर्म होगा अवक्तव्य जो वस्तु के पूर्ण रूपकी सुचना देता है कि वस्तु पूर्णरूपसे वचनके अगोचर है, उसके विराट रूपको शब्द नहीं छू सकते। अवक्तव्य धर्म इस अपेक्षासे है कि दोनों धर्मोको युगपत् कहनेवाला शब्द संसारमें नहीं है । अत: वस्तु यथार्थतः वचनातीत है, अवक्तव्य है। इस तरह मूलमें तीन भंग है-- १ स्यादस्ति घट: २ स्यानास्ति घट: ३ स्यादवक्तव्यो घट: अवक्तव्यके साथ स्यात् पद लगानेका भी अर्थ है कि वस्तु युगपत् पूर्ण रूपमें यदि अवक्तव्य है तो क्रमश: अपने अपूर्ण रूपमें वक्तव्य भी है और वह अस्ति नास्ति आदि रूपसे वचनोंका विषय भी होती है। अतः वस्तु स्याद् अवक्तव्य है । जब मूल भंग तीन हैं तब उनके द्विसंयोगी भंग भी तीन होंगे तथा त्रिसंयोगी भंग एक होगा। जिस तरह चतुष्कोटिमें सत् और असत्को मिलाकर प्रश्न होता है कि क्या सत् होकर भी वस्तु असत् है ?" उसी तरह ये भी प्रश्न हो सकते हैं कि-१ क्या सत् होकर भी वस्तु अवक्तव्य है ? २ क्या असत् होकर भी वस्तु अवक्तव्य है ? ३ क्या सत्असत् होकर भी वस्तु अबक्तव्य है ? इन तीनों प्रश्नोंका समाधान संयोगज चार भंगोंमें है। अर्थात - (४) अस्ति नास्ति उभय रूप वस्तु है-स्वचतुष्टय अर्थात् स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और परचतुष्टय पर क्रमश: दृष्टि रखनेपर और दोनोंकी सामूहिक विवक्षा रहने पर। (५) अस्ति अवक्तव्य वस्तु है-प्रथम समयमें स्वचतुष्टय और द्वितीय समयमें युगपत् स्वपरचतुष्टय पर क्रमश: दृष्टि रखनेपर और दोनोंकी सामूहिक विवक्षा रहने पर। (३) नास्ति अवक्तव्य वस्तु है-प्रथम समयमें परचतुष्टय और द्वितीय समयमें युगपत् स्वपर चतुष्टयकी क्रमशः दृष्टि रखनेपर और दोनोंकी सामूहिक विवक्षा रहने पर। (७) अस्ति नास्ति अवक्तव्य वस्तु है-प्रथम समयमें स्वचतुष्टय, द्वितीय समयमें परचतुष्टय तथा तृतीय समयमें युगपत् स्व-पर चतुष्टय पर क्रमशः दृष्टि रखने पर और तीनोंकी सामूहिक विवक्षा रहने पर। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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