SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनेकान्तदर्शन का सांस्कृतिक आधार की प्रतिष्ठा बाह्यमें कदाचित् हो भी पर धर्मक्षेत्रमें प्राणिमात्रको एक ही भूमिपर बैठना होगा। हर एक प्राणीको धर्मकी शीतल छायामें समानभावसे सन्तोषकी साँस लेनेका सुअवसर है। आत्मसमत्व, वीतरागत्व या अहिंसाके विकाससेही कोई महान् हो सकता है न कि जगत्में विषमता फैलानेवाले हिंसक परिग्रहके संग्रहसे । आदर्श त्याग है न कि संग्रह । इस प्रकार जाति, वर्ण, रंग, देश, आकार, परिग्रहसंग्रह आदि विषमता और संघर्षके कारणों से परे होकर प्राणिमात्रको समत्व, अहिंसा और वीतरागताका पावन सन्देश इन श्रमणसन्तोंने उस समय दिया जब यज्ञ आदि क्रियाकाण्ड एक वर्गविशेषकी जीविकाके साधन बने हुए थे। कुछ गाय, सोना और स्त्रियोंकी दक्षिणासे स्वर्गके टिकिट प्राप्त हो जाते थे, धर्मके नामपर गोमेध अजामेध क्वचित् नरमेधतक का खुला बाजार था, जातिगत उच्चत्व नीचत्वका विष समाजशरीरको दग्ध कर रहा था, अनेक प्रकारसे सत्ताको हथियाने के षड़यन्त्र चालू थे। उस बर्बर युगमें मानवसमत्व और प्राणिमैत्रीका उदारतम सन्देश इन युगधर्मी सन्तोंने नास्तिकताका मिथ्या लांछन सहते हुए भी दिया और भ्रान्त जनताको सच्ची समाजरचनाका मूलमन्त्र बताया। पर, यह अनुभवसिद्ध बात है कि अहिंसाकी स्थायी प्रतिष्ठा मनःशुद्धि और वचनशुद्धिके बिना नहीं हो सकती। हम भले ही शरीरसे दूसरे प्राणियोंकी हिंसा न करें पर यदि वचन व्यवहार और चित्तगत्तविचार विषम और विसंवादी है तो कायिक अहिंसा पल ही नहीं सकती। अपने मनके विचार अर्थात् मतको पुष्ट करने के लिए ऊँच नीच शब्द बोले जायेंगे और फलत: हाथापाईका अवसर आए बिना न रहेगा। भारतीय शास्त्रार्थोंका इतिहास ऐसे अनेक हिंसा काण्डोंके रक्तरञ्जित पन्नोंसे भरा हुआ है । अतः यह आवश्यक था कि अहिंसाकी सर्वांगीण प्रतिष्ठाके लिए विश्वका यथार्थ तत्वज्ञान हो और विचार शुद्धिमूलक वचनशुद्धिकी जीवनव्यवहारमें प्रतिष्ठा हो। यह सम्भव ही नहीं है कि एक ही वस्तुके विषय में परस्पर विरोधी मतवाद चलते रहें, अपने पक्षके समर्थनके लिए उचित अनुचित शास्त्रार्थ होते रहें, पक्षप्रतिपक्षोंका संगठन हो, शास्त्रार्थ में हारनेवालेको तेलकी जलती कड़ाहीमें जीवित तल देने जैसी हिंसक होड़ें भी लगें, फिर भी परस्पर अहिंसा बनी रहे ! ___ भगवान् महावीर एक परम अहिंसक सन्त थे। उनने देखा कि आजका सारा राजकारण धर्म और मतवादियोंके हायमें है। जबतक इन मतवादोंका वस्तुस्थिति के आधारसे समन्वय न होगा तबतक हिंसाकी जड़ नहीं कट सकती। उनने विश्वके तत्त्वोंका साक्षात्कार किया और बताया कि विश्वका प्रत्येक चेतन और जड़ तत्त्व अनन्त धोका भण्डार है। उसके विराट् स्वरूपको साधारण मानव परिपूर्ण रूपमें नहीं जान सकता। उसका क्षुद्र ज्ञान वस्तुके एक एक अंशको जानकर अपने में पूर्णता का दुरभिमान कर बैठा है। विवाद वस्तुमें नहीं है। विवाद तो देखनेवालोंकी दृष्टिमें है। काश ये वस्तुके विराट् अनन्त-धर्मात्मक या अनेकात्मक स्वरूपकी झाँकी पा सकते । उनने इस अनेकान्तात्मक तत्त्वज्ञानकी ओर मतवादियोंका ध्यान खींचा और बताया कि-देखो, प्रत्येक वस्तु अनन्त गुण पर्याय और धर्मोका अखण्ड पिण्ड है। यह अपनी अनाद्यनन्त सन्तानरूप स्थितिकी दृष्टिसे नित्य है। कभी भी ऐसा समय नहीं आ सकता जब विश्वके रंगमञ्चसे एक कणका भी समूल विनाश हो जाय। साथ ही प्रतिक्षण उसकी पर्याय बदल रही हैं, उनके गुण-धर्मोमें भी सदृश या विसदृश परिवर्तन हो रहा है, अतः वह अनित्य भी है। इसी तरह अनन्त गुण, शक्ति, पर्याय और धर्म प्रत्येक वस्तुकी निजी सम्पत्ति हैं। इनमेंसे हमारा स्वल्प ज्ञानलव एक एक अंशको विषय करके क्षुद्र मतवादोंकी सृष्टि कर रहा है। आत्मा को नित्य सिद्ध करनेवालोंका पक्ष अपनी सारी शक्ति आत्माको अनित्य सिद्ध करने वालोंकी उखाड़ पछाड़में लगा रहा है तो अनित्यवादियोंका गुट नित्यवादियोंको भला बुरा कह रहा है। महावीरको इन मतवादियोंकी बुद्धि और प्रवृत्ति पर तरस आता था। वे बुद्धकी तरह आत्मनित्यत्व और अनित्यत्व, परलोक और निर्वाण आदिको अव्याकृत (अकथनीय) कहकर बौद्धिक तमकी For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy