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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०८ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [ १०।४-६ प्रश्न-द्रव्यकर्म के नाश हो जाने पर द्रव्यकर्म के निमित्तसे होनेवाले भावोंका नाश भी स्वयं सिद्ध हो जाता है। अतः इस सूत्रको बनानेकी क्या आवश्यकता है ? उत्तर-- यह कोई नियम नहीं है कि निमित्त के न होने पर कार्य नहीं होता है। . किन्तु निमित्तके अभावमें भी कार्य देखा जाता है जैसे दण्ड, चक्र आदिके न होने पर भी घट देखा जाता है। अतः द्रव्यकर्म के नाश हो जाने पर भावकर्मों का नाश भी हो जाता है इस बातको स्पष्ट करनेके लिये उक्त सूत्र बनाया है। मोक्षमें क्षायिक भावोंका क्षय नहीं होता है अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः ॥ ४ ॥ मोक्षमें केवलसम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्व इन चार भावोंका क्षय नहीं होता है। प्रश्न-तो फिर मोक्षमें अनन्तवीर्य, अनन्तसुख आदिका क्षय हो जायगा। उत्तर-अनन्तवीर्य, अनन्तसुख आदिका अन्तर्भाव ज्ञान और दर्शनमें ही हो जाता है ! अनन्तवीर्य आदि रहित जीवके केवलज्ञान आदि नहीं हो सकते हैं। अतः केवलज्ञान आदिके सद्भावसे अनन्तवीर्य आदिका भी सद्भाव सिद्ध है। प्रश्न-सिद्ध निराकार होते हैं अतः उनका अभाव क्यों नहीं हो जायगा ? उत्तर-सिद्धोंकी आत्माके प्रदेश चरमशरीरके आकार होते हैं अतः उनका अभाव कहना ठीक नहीं है। प्रश्न-कर्मसहित जीवके । प्रदेश शरीरके आकार होते हैं । अतः शरीरका नाश हो जाने पर जोक्के असंख्यात प्रदेशोंको लोक भरमें फैल जाना चाहिये। उत्तर-नोकर्मका सम्बन्ध होने पर जीवके प्रदेशों में संहरण और विसर्पण होता है और नोकर्मका नाश हो जाने पर उनका संहरण-विसर्पण नहीं होता है। प्रश्न-तो जिस प्रकार कारणके न रहने पर प्रदेशों में संहरण और विसर्पण नहीं होता है उसी प्रकार ऊर्ध्वगमनका कारण न रहने पर मुक्त जीवका ऊर्ध्वगमन भी नहीं होगा । अतः जीव जहां मुक्त हुआ है वहीं रहेगा। उत्तर-मुक्त होनेके बाद जीवका ऊर्ध्वगमन होता है। ऊर्ध्वगमनके कारण आगे वतलाये जायगे। तदनन्तरमूज़ गच्छत्यालोकान्तात् ॥ ५ ॥ सर्वकर्मों के क्षय हो जाने के बाद जीव लोकके अन्तिम भाग तक ऊपरको जाता है और वहाँ जाकर सिद्ध शिलापर ठहर जाता है। ऊर्ध्वगमनके कारणपूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद् बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च ॥६॥ पूर्व के संस्कारसे, कर्मके सङ्गरहित हो जानेसे, बन्धका नाश हो जानेसे और ऊर्ध्वगमनका स्वभाव होनेसे मुक्त जीव ऊर्ध्वगमन करता है। संसारी जीवने मुक्त होनेसे पहिले कई बार मोक्षकी प्राप्ति के लिये प्रयत्न किया है। अतः पूर्वका संस्कार रहनेसे जीव ऊर्ध्वगमन करता है। जीव जब तक कर्मभारसहित रहना है तब तक संसार में बिना किसी नियमके गमन करता है और कर्म भारसे रहित हो For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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