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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०१७-९] दसवाँ अध्याय ५०९ जाने पर ऊपरको ही गमन करता है। अन्य जन्मके कारण गति, जाति आदि समस्त कर्मबन्धके नाश हो जानेसे जीव ऊर्ध्वगमन करता है और आगममें जीवका स्वभाव ऊर्ध्वगमन करनेका बतलाया है अतः कर्मों के नष्ट हो जाने पर अपने स्वभावके अनुसार जीवका ऊर्ध्वगमन होता है। ये ऊर्ध्वगमनके चार कारण हैं। उक्त चारों कारणोंके चार दृष्टान्तआविद्धकुलालचक्रवद्वयपगतलेपालाबुवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच्च ॥७॥ घुमाये गये कुम्हार के चक्केकी तरह, लेपरहित तूंबीकी तरह, एरण्ड के बीजकी तरह और अग्निकी शिखाकी तरह जीव ऊर्ध्वगमन करता है। जिस प्रकार कुम्हारके हाथ और दण्डेसे चाकको एक बार घुमा देने पर वह चाक पूर्व संस्कार से बराबर घूमता रहता है उसी प्रकार मुक्त जीव पूर्व संस्कारसे ऊर्ध्वगमन करता है। जिस प्रकार मिट्टोके लेपसहित तू बी जलमें डूब जाती है और लेपके दूर होने पर ऊपर आ जाती है उसी प्रकार कर्मलेपरहित जीव ऊर्ध्वगमन करता है । जिस प्रकार एरण्ड (अण्ड) वृक्षका सूखा बीज फलीके फटने पर ऊपरको जाता है उसी प्रकार मुक्त जीव कर्मबन्ध रहित होनेसे ऊर्ध्वगमन करता है । और जिस प्रकार वायु रहित स्थानमें अग्निकी शिखा खभावसे ऊपरको जाती है उसी प्रकार मुक्त जीव भी स्वभावसे ही ऊर्ध्वगमन करता है। प्रश्न---सङ्ग और बन्धमें क्या भेद है ? ___ उत्तर-परस्पर संयोग या संसर्ग हो जाना सङ्ग है और एक दूसरे में मिल जाना-एक रूपमें स्थिति बन्ध है। प्रश्न-यदि जीवका स्वभाव ऊर्ध्वगमन करनेका है तो लोकके बाहर अलोकाकाश में क्यों नहीं चला जाता ? उत्तर-धमास्तिकायका अभाव होनेसे जीव अलोकाकाशमें नहीं जाता है। धर्मास्तिकायाभावात् ॥ ८॥ गमनका कारण धर्म द्रव्य है । और अलोकाकाशमें धर्म द्रव्यका अभाव है। अतः आगे धर्म द्रव्य न होनेसे जीव लोकके बाहर गमन नहीं करता है । जीवका स्वभाव ऊर्ध्वगमन करनेका है अतः लोक में धर्मद्रव्यके होने पर भी जीव अधोगमन या तिर्यगमन नहीं करता है किन्तु अर्ध्वगमन ही करता है। मुक्त जीवोंमें भेदके कारणक्षेत्र कालगतिलिंगतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनान्तर संख्याल्पबहुत्वतः साध्याः ॥९॥ क्षेत्र, काल, गति, लिङ्ग,तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्ध,बोधितबुद्ध, ज्ञान,अवगाहन, अन्तर, संख्या और अल्पबहुत्व इन बारह अनुयोगोंसे सिद्धोंमें भेद पाया जाता है। क्षेत्र आदिका भेद निश्चयनय और व्यवहारनयकी अपेक्षासे किया जाता है। क्षेत्रकी अपेक्षा निश्चयनयसे जीव आत्माके प्रदेशरूप क्षेत्रमें ही सिद्ध होता है और व्यवहारनयसे आकाशके प्रदेशों में सिद्ध होता है। जन्मकी अपेक्षा पन्द्रह कर्मभूमियों में सिद्ध होता है और संहरणकी अपेक्षा मनुष्य लोकमें सिद्ध होता है । संहरण दो प्रकारसे होता है-विकृत और परकृत । चारण विद्याधरोंके स्वकृत संहरण होता है । तथा For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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