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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ ] दसवाँ अध्याय ५०७ बन्धके कारण मिथ्यादर्शन आदिके न रहनेसे नवीन कर्मोंका आस्रव नहीं होता है और निर्जराके द्वारा संचित कोका क्षय हो जाता है इस प्रकार संवर और निर्जराके द्वारा मोक्षकी प्राप्ति होती है। कोका क्षय दो प्रकारसे होता है-प्रयत्नसाध्य और.अप्रयत्नसाध्य । जिस कर्मक्षय के लिय प्रयत्न करना पड़े वह प्रयत्नसाध्य है और जिसका क्षय स्वयं विना किसी प्रयत्नके हो जाय वह अप्रयत्नसाध्य कर्मक्षय है। चरमोत्तमदेहधारी जीवके नरकायु, तिर्यञ्चायु और देवायुका भय अप्रयत्नसाध्य है। प्रयत्नसाध्य कर्मक्षय निम्न प्रकारसे होता है चौथ, पाँचवे,छठवें और सातवें गुणस्थानों से किसी एक गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धी चार कषाय और दर्शन मोहकी तीन प्रकृतियोंका क्षय होता है। अनिवृत्ति बादर साम्पराय गुणस्थानके नव भाग होते हैं। उनमें से प्रथम भागमें निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, त्यानगृद्धि, नरकगति, तिर्यग्गति, एकेन्द्रियसे चतुरिन्द्रिय पर्यन्त चार जाति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इन सोलह प्रकृतियोंका क्षय होता है । द्वितीय भागमें प्रत्याख्यान चार और अप्रत्याख्यान चार इन आठ कषायोंका क्षय होता है। तीसरे भागमें नपुंसक वेदका और चौथे भागमें स्त्रीवेदका क्षय होता है। पाँचवें भागमें हास्य आदि छह नोकषायोंका क्षय होता है। छठवें भागमें वेदका क्षय होता है । सातवें, आठवें और नवमें भागोंमें क्रमसे क्रोध, मान और माया संज्वलनका क्षय होता है। सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें लोभसंज्वलनका नाश होता है। बारहवें गुणस्थानके उपान्त्य समयमें निद्रा और प्रचलाका नाश होता है और अन्त्य समयमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायोंका क्षय होता है। सयोगकेवलीके किसी भी प्रकृतिका क्षय नहीं होता है। अयोगकेवली गुणस्थानके उपान्त्य समयमें एक वेदनीय, देवगति, पाँच शरीर, पाँच बन्धन, पाँच संघात, छह संस्थान, तीन अङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस, आठ स्पर्श, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात उच्छ्वास, प्रशस्त और अप्रशस्तविहायोगति, पर्याप्ति. प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुभंग, सुस्वर, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण और नीचगोत्र इन बहत्तर प्रकृतियों का क्षय हाता है और अन्त्य समयमें एक वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, पञ्चेन्द्रिय जाति, बस, बादर, पर्याप्ति, सुभग, आदेय, यशःकीर्ति, तीर्थकर और उच्चगोत्र इन तेरह प्रकृतियों का क्षय होता है। 'क्या द्रव्य कर्मों के क्षयसे ही मोक्ष होता है अथवा अन्यका क्षय भी होता है ? इस प्रश्न के उत्तरमें आचार्य निम्न सूत्रको कहते हैं औपशमिकादिभव्यत्वानाञ्च ॥ ३ ॥ औपशमिक, औदायिक, क्षयोपशमिक और भव्यत्व इन चार भावोंके क्षयसे मोक्ष होता है। 'च' शब्दका अर्थ है कि केवल द्रव्यकर्मों के क्षयसे ही मोक्ष नहीं होता है किन्तु द्रव्यकर्मों के आयके साथ भावकों के क्षयसे माक्ष होता है । पारिणामिक भावों मेंसे भव्यत्व का ही क्षय होता है; जीवत्व, वस्तुत्व, अमूर्तत्व आदिका नहीं। यदि मोक्षमें इन भावोंका भी क्षय हो जाय तो मोक्ष शून्य हो जायगा । मोक्षमें अभव्यत्वके क्षयका तो प्रश्न ही नहीं हो सकता है क्यों कि भव्य जीवको ही मोक्ष होता है। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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