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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org .org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दसवाँ अध्याय केवलज्ञानकी उत्पत्ति के कारणमोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् ॥ १ ॥ मोहनीय कर्म के क्षय होनेसे, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायके क्षय होनेसे तथा 'च' शब्दसे तीन आयु और नामकर्मकी तेरह प्रकृतियोंके क्षय होनेसे केवल ज्ञान उत्पन्न होता है। मोहनीयकी अट्ठाईस, ज्ञानावरणकी पाँच, दर्शनावरणकी नौ और अन्तरायकी पाँच प्रकृतियोंके क्षय होनेसे; देवायु, तिर्यगायु और नरकायुके क्षय होनेसे तथा साधारण, आतप, पञ्चेन्द्रियके बिना चार जाति, नरकगति, नरकग त्यानुपूर्वी, स्थावर, सूक्ष्म, तिर्यम्गति, तिर्यग्गत्यानुयूर्वी और उद्योत इन तेरह नामकर्मको प्रकृतियोंके क्षय होनेसे ( एकत्र सठ प्रकृतियोंके क्षयसे ) केवलज्ञान उत्पन्न होता है। प्रश्न-'मोहज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयात् केवलम्' ऐसा लघुसूत्र क्यों नहीं बनाया ? उत्तर-कर्मो के क्षयका क्रम बतलानेके लिये सूत्र में 'मोहक्षयात्' शब्दको पृथक् रक्खा है । पहिले मोहनीय कर्मका क्षय होता है और अन्तर्मुहूर्त बाद ज्ञानावरणादिका श्रय होता है । कर्मों के क्षयका क्रम इस प्रकार है __ भव्य सम्यग्दृष्टि जीव अपने परिणामोंकी विशुद्धिसे असंयतसम्यग्दृष्टि, देशसंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त संयत गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धी चार कषायोंका और दर्शनमोहकी तीन प्रकृतियोंका क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है । पुनः अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें अधःकरण परिणामोंको प्राप्तकर क्षपकरणी चढ़नेके अभिमुख होता हुआ अपूर्वकरण परिणामोंसे अपूर्वकरण गुणस्थानको प्राप्त करके शुभपरिणामोंसे पापकोंकी स्थिति और अनुभागको कम करता है और शुभ कर्मों के अनुभागको बढ़ाता है। पुनः अनिवृत्तिकरण परिणामोंसे अनिवृत्तिबादरसाम्पराय गुणस्थानको प्राप्त कर प्रत्याख्यान कषाय चार, अप्रत्याख्यान कषाय चार, नपुसकवेद, स्त्रीवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुंवेद, क्रोध, मान और मायासंचलनका बादरकृष्टि ( उपायक द्वारा जिन कर्मोंकी निर्जरा की जाती है उन कर्मोको किट्टि या कृष्टि कहते हैं। किट्टि के दो भेद हैं-बादरकृष्टि और सूक्ष्मकृष्टि) द्वारा क्षय करके लोभसंज्वलनको कृश करके सूक्ष्मसाम्पराय क्षपक गुणस्थानको प्राप्त करता है। पुनः मोहनीयका पूर्ण क्षय करके क्षीणकषाय गुणस्थानको प्राप्तकर इस गुणस्थानके उपान्त्य समयमें निद्रा ओर प्रचला इन दो प्रकृतियोंका क्षय करके और अन्त्य समयमें पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तरायों का श्य करके जीव केवलझान और केवलदर्शनको प्राप्त करता है । मोक्षका स्वरूप और कारणबन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ॥ २ ॥ बन्धके कारणोंका अभाव (संघर) और निर्जराके द्वारा सम्पूर्ण कर्मोके नाश हो जाने को मोक्ष कहते हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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