SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 595
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८४ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [९१७ भाषा समिति और सत्यमें भेद-भाषा समिति वाला मुनि साधु और असाधु दोनों प्रकारके पुरुषों में हित और परिमित वचनोंका प्रयोग करेगा। यदि वह असाधु पुरुषों में . अहित और अमित भाषण करेगा तो रागके कारण उसकी भाषासमिति नहीं बनेगी। लेकिन सत्य बोलनेवाला साधुओंमें और उनके भक्तोंमें सत्य वचनका प्रयोग करेगा और ज्ञान,चारित्र आदिकी शिक्षाके हेतु अमित (अधिक) वचनका भी प्रयोग करेगा अर्थात् भाषा समितिमें प्रवृत्ति करने वाला असाधु पुरुषों में भी वचनका प्रयोग करेगा लेकिन उसके वचन मित ही होंगे और सत्य बोलने वाला पुरुष साधु पुरुषों में ही वचनका प्रयोग करेगा लेकिन उसके वचन अमित भी हो सकते हैं। छह कायके जीवोंकी हिंसाका त्याग करना और छह इन्द्रियों के विषयोंको छोड़ देना उत्तम संयम है। संयमके दो भेद हैं एक अपहृतसंज्ञक और दूसरा उपेक्षासंज्ञक । अपहृत, संज्ञक संयम के तीन भेद हैं-उत्तम. मध्यम और जघन्य । जो मुनि प्राणियोंके समागम होनेपर उस स्थानसे दूर हट कर जीवोंकी रक्षा करता है उसके उत्कृष्ट संयम है। जो कोमल मोरकी पीछीसे जीवों को दूर कर अपना काम करता है उसके मध्यम संयम है । और जो दूसरे साधनों से जीवोंको दूर करता हैं उसके जघन्य संयम होता है । रागद्वेष के त्यागका नाम उपेक्षासंज्ञक संयम है। उपार्जित कर्मोके क्षयके लिये बारह प्रकारके तपोंका करना उत्तम तप है। ज्ञान, आहार आदि चार प्रकार का दान देना उत्तम त्याग है। पर पदार्थों में यहाँ तक कि अपने शरीरमें भी ममेदं या मोहका त्याग कर देना उत्तम आकिञ्चन्य है। इसके चार भेद हैं। १ अपने और परके जीवन के लोभका त्याग करना । २ अपने और परके आरोग्यके लोभका त्याग करना। ३ अपने और परके इन्द्रियोंके लोभ का त्याग करना । ४ अपने और परके उपभोगके लाभका त्याग करना । ____ मन, वचन और कायसे स्त्री सेवनका त्याग कर देना ब्रह्मचर्य है । स्वेच्छाचार पूर्वक प्रवृत्ति को रोकनेके लिय गुरुकुलमें निवास करनेको भी ब्रह्मचर्य कहते हैं। विषयों में प्रवृत्तिको रोकने के लिये गुप्ति बतलाई है। जो गुप्तिमें असमर्थ है उसका प्रवृत्ति के उपाय बतलानेके लिये समिति बतलाई गई है। और समितिमें प्रवृत्ति करने वाले मुनिको प्रमादके परिहारके लिये दश प्रकारका धर्म बतलाया गया है। अनुप्रेक्षाका वर्णनअनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुच्यास्रवसंवरनिर्जरालोकबो धिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्वाचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥ ७ ॥ अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म इनके स्वरूपका चिन्तवन करना सो बारह अनुप्रेक्षायें हैं। अनित्यभावना-शरीर और इन्द्रियोंके विषय आदि सब पदार्थ इन्द्रधनुष और दुष्टजनकी मित्रता आदिकी भांति अनित्य हैं। लेकिन जीव अज्ञानताके कारण उनको नित्य समझ रहा है । संसारमें जीवके निजी स्वरूप ज्ञान और दर्शनको छोड़कर और कोई वस्तु नित्य नहीं है इस प्रकार विचार करना अनिन्यानुप्रेक्षा है। ऐसा विचार करनेसे जीव शरीर, पुत्र, कलत्र आदिमें राग नहीं करता है और वियोगका अवसर उपस्थित होनेपर भी दुःख नहीं करता है। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy