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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९।५-६] नवम अध्याय ४८३ समितिका वर्णनईर्याभाषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ॥५॥ ईर्याममिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदाननिक्षेपसमिति और उत्सर्गसमिति ये पाँच समितियाँ हैं । इनमें प्रत्येकके पहिले सम्यक् शब्द जोड़ना चाहिये जैसे सम्यगीर्यासमिति आदि। ईर्यासमिति-जिसने जीवोंके स्थानको अच्छी तरह जान लिया है और जिसका चित्त एकाग्र है ऐसे मुनिके तीर्थयात्रा, धर्मकार्य आदिके लिये आगे चार हाथ पृथिवी देखकर चलनेको ईर्यासमिति कहते हैं। ____ एकेन्द्रिय बादर और सूक्ष्म, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय इन सातोंके पर्याप्तक और अपर्याप्तकके भेदसे चौदह जीवस्थान होते हैं। _ भाषासमिति-हित, मित और प्रिय वचन बोलना अर्थात् असंदिग्ध, सत्य, कानोंको प्रिय लगनेवाले, कषायके अनुत्पादक, सभास्थानके योग्य, मृदु, धर्मके अविरोधी, देशकाल आदिके योग्य और हास्य आदिसे रहित वचनोंको बोलना भाषासमिति है। एषणासमिति-निर्दोष आहार करना अर्थात् विना याचना किये शरीरके दिखाने मात्रसे प्राप्त,उद्गम,उत्पादन आदि आहारके दोषोंसे रहित, चमड़ा आदि अस्पृश्य वस्तुके संसर्गसे रहित दूसरेके लिये बनाये गये भोजनको योग्य कालमें ग्रहण करना एषणासमिति है। आदाननिक्षेपसमिति-धर्मके उपकरणोंको मोरकी पीलीसे, पीछीके अभावमें कोमल वस्त्र आदिसे अच्छी तरह झाड़ पोंछ कर उठाना और रखना आदाननिक्षेपसमिति है। मुनि गायकी पूँछ, मेषके रोम आदिसे नहीं झाड़ सकता है। उत्सर्गसमिति-जीव रहित स्थानमें मल मूत्रका त्याग करना उत्सर्गसमिति है। इन पाँच समितियोंसे प्राणिपीड़ाका परिहार होता है अतः समिति संवरका कारण है। धर्मका वर्णनउत्तमक्षमामार्दवार्जवसत्यशौचसंयमतपस्त्यागाकिश्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः ॥ ६ ॥ क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिश्चन्य और ब्रह्मचर्य ये दश धर्म हैं। इनमें प्रत्येकके पहिले उत्तम शब्द लगाना चाहिये जैसे-उत्तम क्षमा आदि। . __उत्तमक्षमा-शरीरकी स्थिति के कारणभूत आहारको लेनेके लिये दूसरों के घर जाने वाले मुनिको दुष्ट जनोंके द्वारा असह्य गाली दिये जाने या काय विनाश आदिके उपस्थित होनेपर भी मनमें किसी प्रकारका क्रोध नहीं करना उत्तम क्षमा है। उत्तममार्दव-ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और वपु इन आठ पदार्थो के घमण्डको छोड़कर दूसरों के द्वारा तिरस्कार होनेपर अभिमान नहीं करना उत्तम मार्दव है। मन, वचन और कायसे माया ( छल-कपट ) का त्याग कर देना उत्तम आर्जव है। लोभ या गृद्धताका त्याग कर देना उत्तम शौच है । मनोगुप्ति और शौचमें यह भेद है कि मनोगुप्तिमें सम्पूर्ण मानसिक व्यापारका निरोध किया जाता है किन्तु जो ऐसा करनेमें असमर्थ है उसको दूसरों के पदार्थों में लोभके त्यागके लिये शौच बतलाया गया है । भगवती आराधनामें शौचका 'लाधव' नाम भी मिलता है। दिगम्बर मुनियों और उनके उपासकोंके लिये सत्य वचन कहना उत्तम सत्य है । For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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