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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९१७] नवम अध्याय ४८५ अशरणभाव-जिस प्रकार निर्जन वनमें मांसभक्षी और भूखे सिंहके द्वारा मृगके बच्चेको पकड़े जानेपर उसका कोई सहायक नहीं होता है उसी प्रकार जन्म, जरा, मरण, रोग आदि दुखोंके बीचमें पड़े हुए जीवका भी कोई शरण नहीं है । संचित धन दूसरे भवमें नहीं जाता है । बान्धव भी मरण कालमें जीवकी रक्षा नहीं कर सकते । इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती आदि भी उस समय शरण नहीं होते हैं। केवल एक जैनधर्म ही शरण होता है। इस प्रकार विचार करनेसे संसारके पदार्थों में ममत्व नहीं होता है और रत्नत्रय मार्ग में रुचि होती है। ___३ संसारभावना-इस संसारमें भ्रमण करनेवाला जीव जिस जीवका पिता होता है वही जीव कभी उसका भाई, पुत्र और पौत्र भी होता है और जो माता होती है वहो बहिन, भार्या, पुत्री और पौत्री भी होती है। स्वामी दास होता है और दास स्वामी होता है । अधिक क्या जीव स्वयं अपना भी पुत्र होता है । इस प्रकार जीव नटकी तरह नाना वेषोंको धारण करता है। ऐसा संसारके स्वरूपका विचार करना ससारानुप्रेक्षा है । विचार करनेसे जीवको संसारके दुःखोंसे भय होता है और वैराग्य भी होता है। ४ एकत्वभावना--आत्मा अकेला जन्म लेता है और अकेला ही मरण करता है तथा अकेला ही दुःखको भोगता है। जीवका वास्तवमें न कोई बन्धु है और न कोई शत्रु । व्याधि, जरा, मरण आदिके दुखों को स्वजन या परजन काई भी सहन नहीं करते हैं। बन्धु और मित्र श्मशान तक ही साथ जाते हैं। अविनाशी जिनधर्म ही जीवका सदा सहायक है। इस प्रकार विचार करना एकत्वानुप्रेक्षा है। ऐसा विचार करनेसे जीवकी स्वजनों और परजनोंमें प्रीति और अप्रीति नहीं होती है और जीव उनसे विरक्त हो जाता है। अन्यत्वभावना-जीवको शरीर आदिसे पृथक् चिन्तवन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। यद्यपि बन्धकी अपेक्षा जीव और शरीर एक ही है लेकिन लक्षणके भेदसे इनमें भेद पाया जाता है । काय इन्द्रियमय है और जीव इन्द्रिय रहित है । काय अज्ञ है और जीव ज्ञानवान् है। काय अनित्य है और आत्मा नित्य हैं। जब कि जीव शरीरसे भिन्न है तो कलत्र, पुत्र, गृह आदिसे भिन्न क्यों नहीं होगा ? अर्थात् इनसे भी भिन्न है ही। इस प्रकार आत्माको शरीर आदिसे भिन्न चिन्तवन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तवन करनेसे शरीर आदिमें वैराग्य उत्पन्न होता है। ६ अशुचिभावना-यह शरीर अत्यन्त अपवित्र है। रुधिर, मांस, मज्जा आदि अशुचि पदार्थों का घर है; इस शरीरकी अशुचिता जलमें नहानेसे और चंदन, कपूर, कुङ्कम आदिके लेप करनेसे भी दूर नहीं की जा सकती है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ही जीवको विशुद्धिको करते हैं इस प्रकार विचार करना अशुच्यनुप्रेक्षा है। ऐसा विचार करनेसे शरीरमें वैराग्य उत्पन्न होता है ७ आस्रव भावना-कर्मोका आस्रव सदा दुःखका देने वाला है। इंद्रिय, कषाय, अव्रत और क्रियाएँ नदीके प्रवाहके समान तीव्र होती हैं। स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये इंद्रियाँ गज,मत्स्य, भ्रमर, शलभ और मृग आदिका संसारसमुद्र में गिरा देती हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ, वध, बन्धन आदि दुःखोंको देते हैं । इस प्रकार आस्रव के स्वरूपका विचार करना सो आस्रवानुप्रेक्षा है । ऐसा विचार करनेसे उत्तम क्षमा आदिके पालन करने में मन लगता है। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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