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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७।३६-३८] सातवाँ अध्याय प्रश्न-प्रती पुरुषकी सचित्ताहार आदिमें प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? उत्तर-मोह अथवा प्रमादके कारण बुभुक्षा और पिपासासे व्याकुल मनुष्य सचित्त आदिसे सहित अन्न, पान, लेपन, आच्छादन आदिमें प्रवृत्ति करता है। अतिथिसंविभागवतके अतिचारसचित्तनिक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमाः ॥ ३६ ॥ सचित्तनिक्षेप, सचित्तापिधान, परव्यपदेश, मात्सर्य और कालातिक्रम ये अतिथिसंविभागवतके पाँच अतिचार हैं। ___ सचित्त कदलीपत्र, पद्मपत्र आदिमें रखकर आहार देना सचित्तनिक्षेप है। सचित्त वस्तुसे ढके हुए आहारको देना सचित्तापिधान है। अपनी असुविधाके कारण दूसरे दाताके द्वारा अपने द्रव्यका दान कराना परव्यपदेश है। अथवा यहाँ दूसरे अनेक दाता हैं मैं दाता नहीं हूँ इस प्रकार सोचना परव्यपदेश है। या दूसरे ही इस प्रकारका आहार दे सकते हैं मैं इस प्रकारसे या इस प्रकारका आहार नहीं दे सकता ऐसे विचारको परव्यपदेश कहते हैं। प्रश्न-परव्यपदेश अतिचार कैसे होता है ? उत्तर-धनादिलाभकी आकांक्षासे आहार देनेके समय में भी व्यापारको न छोड़ सकनेके कारण योग्यता होने पर भी दूसरेसे दान दिलानेके कारण परव्यपदेश अतिचार होता है। कहा भी है कि___"अपने द्रव्यके द्वारा दूसरोंसे धर्म करानेमें धनादिकी प्राप्ति तो होती है परन्तु वह अपने भोगके लिए नहीं । उसका भोक्ता दूसरा ही होता है।" “भोजन और भोजन शक्तिका होना, रतिशक्ति और स्त्रीकी प्राप्ति, विभव और दान शक्ति ये स्वय धर्म करनेके फल हैं।" अनादरपूर्वक दान देना अथवा दूसरे दाताओंके गुणोंको सहन नहीं करना मात्सर्य है। आहारके समयको उल्लंघन कर अकालमें दान देना अथवा क्षुधित मुनिका अवसर टाल देना कालातिक्रम है। सल्लेखनाके अतिचारजीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि ॥ ३७॥ जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध और निदान ये सल्लेखना व्रतके पाँच अतिचार हैं। सल्लेखना धारण करने पर भी जीवित रहनेकी इच्छा करना जीविताशंसा है। रोगस पीड़ित होनेपर बिना संक्लेशके मरनेकी इच्छा करना मरणाशंसा है। पूर्व में मित्रोंके साथ अनुभूत क्रीड़ा आदिका स्मरण करना मित्रानुराग है । पूर्वकालमें भोगे हुए भोगोंका स्मरण करना सुखानुबन्ध है । मरनेके बाद परलोकमं विषयभोगोंकी आकांक्षा करना निदान है। दानका स्वरूप-- ___ अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसगर्गो दानम् ॥ ३८ ॥ अपने और परके उपकारके लिये धन आदिका त्याग करना दान है। दान देनेसे दाताको विशेष पुण्यबन्ध होता है और अतिथिके सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदिकी वृद्धि होती है । यही स्त्र और परका उपकार है। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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