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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार · सामायिक व्रतके अतिचारयोगदुःप्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥ ३३ ॥ काययोगदुष्प्रणिधान, वाग्योगदुष्प्रणिधान, मनोयोगदुष्प्रणिधान, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान ये सामायिकत्रतके पाँच अतिचार हैं। योगोंकी दुष्टप्रवृत्तिको तथा अन्यथा प्रवृत्तिको योगदुष्प्रणिधान कहते हैं । सामायिकके समय क्रोध मान माया और लोभसहित मन वचन कायकी प्रवृत्ति दुष्ट प्रवृत्ति है। शरीरके अवयवोंको आसनबद्ध या नियन्त्रित नहीं रखना कायकी अन्यथाप्रवृत्ति है। अर्थरहित शब्दोंका प्रयोग करना वचनकी अन्यथाप्रवृत्ति है और उदासीन रहना मनकी अन्यथाप्रवृत्ति है। सामायिक करनेमें उत्साहका न होना अनादर है । एकाग्रताके अभावसे सामायिकपाठ वगैरह भूल जाना स्मृत्यनुपस्थान है। प्रोषधोपवासनतके अतिचारअप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥ ३४ ।। 'अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्ग, अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितादान, अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितसंस्तरोपक्रमण, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान ये प्रोषधोपवासवतके पाँच अतिचार हैं। ___यहाँ जीव हैं या नहीं इस प्रकार अपनी चक्षुसे देखना प्रत्यवेक्षित है, और कोमल उपकरण ( पीछी ) से झाड़नेको प्रमार्जित कहते हैं। बिना देखी और विना शोधी हुई भूमि पर मल, मूत्र आदि करना अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्ग है। देखे और शोधे बिना पूजन आदिके उपकरणोंको उठा लेना अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितादान है। बिना देखे और बिना शोधे हुए विस्तर पर सो जाना अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितसंस्तरोपक्रमण है। क्षुधा, तृषा आदिसे व्याकुल होनेपर आवश्यक धार्मिक कार्यों में आदरका न होना अनादर है। करने योग्य कार्योंको भूल जाना स्मृत्यनुपस्थान है। ___ उपभोगपरिभोगपरिमाणवतके अतिचार सचित्तसम्बन्धसम्मिश्राभिषवदुष्पक्काहाराः ।। ३५ ।। सचित्ताहार, सचित्तसम्बन्धाहार, सचित्तसंमिश्राहार, अभिषवाहार और दुःपक्काहार ये उपभोगपरिभोगपरिमाणवतके पाँच अतिचार हैं। सचित्त ( जीव सहित ) फल आदिका भक्षण करना सचित्ताहार है। सचित्त पदार्थ से सम्बन्धको प्राप्त हुई वस्तुको खाना सचित्तसम्बन्धाहार है । सचित्त पदार्थसे मिले हुए पदार्थका खाना सचित्तसंमिश्राहार है। सम्बन्धको प्राप्त वस्तु तो पृथक् की जा सकती है लेकिन संमिश्र वस्तु पृथक नहीं हो सकती यही सम्बन्ध और संमिश्रमें भेद है। रात्रिमें चार पहर तक गलाया या पकाया हुआ चावल आदि अन्न द्रव कहलाता है। बलवर्द्धक तथा कामोत्पादक आहारको वृष्य कहते हैं। द्रव और वृष्य दोनोंका नाम अभिषव है। अभिपय पदार्थका आहार करना अभिषवाहार है। कम या अधिक पके हुए पदार्थका आहार करना दुःपक्वाहार है । वृष्य और दुःपक्व आहारके सेवन करनेसे इन्द्रियमदकी वृद्धि होती है, सचित्त पदार्थको उपयोगमें लेना पड़ता है, वात आदिके प्रकोप तथा उदर में पीड़ा आदिके होनेपर अग्नि आदि जलानी पड़ती है। इन बातोंसे बहुत असंयम होता है। अतः इस प्रकारके आहारका त्याग करना ही श्रेयस्कर है। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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