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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७। ३०-३२] सातवाँ अध्याय ४६१ दिग्नतके अतिचारऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि ॥३०॥ ऊर्ध्वव्यतिक्रम अधोव्यतिक्रम, तिर्यग्व्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तराधान ये दिनतके पाँच अतिचार हैं। दिशाके परिमाण को उल्लंघन करनेको व्यतिक्रम कहते हैं। ऊपरके परिमाणको उल्लंघन कर पर्वत श्रादिपर चढ़ना ऊर्ध्वव्यतिक्रम है, इसी प्रकार नीचे कुंआ आदिमें उतरना अधोव्यतिक्रम है और सुरङ्ग, बिल आदिमें तिरछा प्रवेश करना तिर्यग्व्यतिक्रम है। प्रमाद अथवा मोहादिके कारण लोभमें आकर परिमित क्षेत्रको बढ़ा लेना क्षेत्रवृद्धि है, अर्थात् परिमित क्षेत्रके बाहर लाभ आदि होनेकी आशासे वहाँ जाना या जानेकी इच्छा करना क्षेत्रवृद्धि है और दिशाओंके प्रमाणको भूल जाना स्मृत्यन्तराधान है । देशत्रतके अतिचार आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपाः ॥ ३१ ॥ आनयन, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात और पुद्गलक्षेप ये देशव्रतके पाँच अतिचार हैं। मर्यादाके बाहरकी वस्तुओंको अपने क्षेत्रमें मंगाकर क्रय,विक्रय आदि करना आनयन है। मर्यादाके बाहर नौकर आदिको भेजकर इच्छित कार्यकी सिद्धि कराना प्रेष्यप्रयोग है। कार्यकी सिद्धिके लिये मर्यादासे बाहर वाले पुरुषोंको खांसी आदि के शब्द द्वारा अपना अभिप्राय समझा देना शब्दानुपात है। इसी प्रकार मर्यादासे बाहरवालोंको अपना शरीर दिखाकर कार्यकी सिद्धि करना रूपानुपात है तथा मर्यादासे बाहर कंकर, पत्थर आदि फेंककर काम निकालना पुद्गलक्षेप है।। अनर्थदण्डव्रतके अतिचारकन्दर्पकौत्कुच्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि ॥ ३२ ॥ कंदर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, असमीक्ष्याधिकरण और उपभोगपरिभोगानर्थक्य ये अनर्थदण्डवत के पाँच अतिचार हैं। रागकी अधिकता होनेके कारण हास्यमिश्रित अशिष्ट वचन बोलना कन्दर्प है। शरीरसे दुष्ट चेष्टा करते हुए हास्यमिश्रित अशिष्ट शब्दोंका प्रयोग करना कौत्कुच्य है। धृष्टतापूर्वक विना प्रयोजनके आवश्यकतासे अधिक बोलना मौखर्य है। बिना विचारे अधिक प्रवृत्ति करना असमीक्ष्याधिकरण है । इसके तीन भेद हैं-मनोगत, वाग्गत और कायगत असमीक्ष्याधिकरण। मिथ्यादृष्टियों के द्वारा रचित अनर्थक काव्य आदिका चिन्तन करना मनोगत असमीक्ष्याधिकरण है। बिना प्रयोजन दूसरोंको पीड़ा देनेवाले वचनोंको बोलना वाग्गत असमीक्ष्याधिकरण है और विना प्रयोजन सचित्त और अचित्त फल, फूल आदि का छेदना तथा अग्नि, विष आदिका देना कायगत असमीक्ष्याधिकरण है। उपभोगपरिभोगके पदार्थोंको अत्यधिक मूल्यसे खरीदना तथा आवश्यकतासे अधिक भोग और उपभोगके पदार्थोंको रखना उपभोगपरिभोगानर्थक्य है। For Private And Personal Use Only
SR No.010564
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1949
Total Pages661
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size10 MB
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